विभाजन के ऊजड़े परिवारों के प्रति नेहरू-गांधी का दुर्व्यवहार

दिनांक 29 अगस्त, 2022 को मानुषी संवाद पर मधु किश्वर द्वारा इंटरव्यू के दौरान, कृष्णानंद सागर ने दिल दहलाने वाले अत्याचारों का खुलासा किया है, जो नेहरू और गांधी के हाथों बंटवारे से ग्रसित परिवारों को झेलने पड़े थे। मानुषी इंडिया द्वारा प्रकाशित इस साक्षात्कार का प्रतिलेख हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं। मूल वीडियो https://bit.ly/3HypwHA पर देखा जा सकता है।

यद्यपि विभाजन का जहर जिन्ना द्वारा आगे बढ़ाया गया था, परंतु गांधी और नेहरू की तुष्टिकरण की  नीति और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने भारत के हिंदुओं पर क़हर ढाया। गांधी स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख थे। उन्होंने पीएम पद पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा, ”प्रधानमंत्री बनने के लिए खादी पहनना ही काफी नहीं है, पढ़ाई जरूरी है, विदेशों से बात करना जरूरी है, इसलिए मेरी पसंद नेहरू हैं.”

नेहरू की सत्ता की लोलुपता इतनी तीव्र और कष्टप्रद थी कि आजादी के बाद भी यह जारी रही। सरदार पटेल के सचिव रहे एमके नायर के अनुसार उनकी अंधी लोलुपता के कारण ही जवाहरलाल नेहरू ने भारत का विभाजन थोपा था। जब सरदार पटेल ने भारत के इस ‘संपूर्ण इस्लामीकरण’ का विरोध किया, तो नेहरू ने उन्हें अपमानित करते हुए कहा, “आप एक सांप्रदायिक व्यक्ति हैं और मैं आपके मनसूबों का हिस्सा कभी नहीं बनूंगा।”

साम्प्रदायिक हिंसा का समाधान खोजने के बजाय, नेहरू ने भारत के टुकड़े- टुकड़े करने का फैसला किया। प्रधान मंत्री बनने की उनकी लालसा ने न केवल भारत के क्षेत्र फल को कम किया बल्कि लाखों लोगों को इनके पुश्तैनी भूमि और घरों से उजाड़ दिया।

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस फैसले से लगभग 20 लाख लोग मारे गए थे और लगभग 20 मिलियन लोग विस्थापित हुए थे। लेकिन हम सभी जानते हैं कि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक बड़ी और भयावह है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस फैसले से लगभग 20 लाख लोग मारे गए थे और लगभग 20 मिलियन लोग विस्थापित हुए थे। लेकिन हम सभी जानते हैं कि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक बड़ी और भयावह है।

5 जनवरी, 1941 को पाकपट्टन, मोंटगोमरी जिला, पश्चिम पंजाब (अखंड भारत) में जन्मे श्री कृष्णानंद सागर ने स्वयं भारत विभाजन की भयावहता को देखा और अनुभव किया है। वह उस दौर की कई घटनाओं के चश्मदीद हैं। उन्होंने 1954 में महोबा (बुंदेलखंड, यूपी) और 1960 में धर्मशाला (एचपी) से मैट्रिक पूरा किया। 1958 से 1978 तक, वह पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे।

इस साक्षात्कार में, मधु किश्वर और कृष्णानंद सागर ने गांधी और नेहरू की साजिशों के पीछे की सच्चाई के बारे में महत्वपूर्ण और बहुत आवश्यक चर्चा शुरू की, जिसके कारण भारत का खूनी विभाजन हुआ।
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मधु किश्वरमानुषी संवाद में आप सबका स्वागत है. हमने बातचीत की थी कृष्णानंद सागर जी से जिन्होंने विभाजन पीड़ित लोगों पर चार खंडों में अपना अनुसंधान छापा है और उसमें केवल विभाजन पीड़ित लोगों की कहानियां ही नहीं हैं, उनके अनुभव ही नहीं हैं, इनके स्वयं के परिवार के साथ जो राजनीति घट रही थी विभाजन को अग्रभूमि में रखते हुए, उसके बारे में बहुत ही प्रखर टिप्पणियां हैं तथ्यों के साथ। तो आज कृष्णानंद जी हमारे साथ जुड़ रहे हैं ‘विभाजन के उजड़े परिवारों के प्रति गाँधी नेहरु का दुर्व्यवहार’ को लेकर। कैसे संभाला जब लाखों लोग आ गए, यहाँ कोई घर नहीं बार नहीं और अगस्त के महीने में आए जब मूसलाधार बारिश होती थी। उसके बाद तुरंत कुछ ही महीनों में कड़ाके की ठण्ड सर्दी शुरू हो जाती है उत्तर भारत में, तो ना पहनने को कपडा, न रहने को घर, न कोई सर के उपर छत, न कोई खाने पीने का इंतजाम, ना कोई नौकरियां जो इंतज़ार कर रहीं है आप के लिए, या व्यापर है जिसमें तुरंत आपको लगा दिया गया हो।

कैसे हमारे देश में उजड़े हुए विस्थापित होकर शरणार्थी आए, अपने ही देश में, उत्तर भारत में। और पूरे देश में फैले जहाँ जहाँ उनको काम मिला। उनके साथ सरकार ने कैसा व्यव्हार किया और क्या रवैया रहा गाँधी और नेहरु का उनके प्रति?

इस मुद्दे पर आप क्या कहना चाहेंगे? 

कृष्णानंद जीसरकार ने क्या किया बाद की बात है। पहली बात तो ये है कि ये जो शरणार्थी कैम्पस लगे थे, उन को थोडा समझ लें। दिसम्बर 1946 में, 21-22 दिसम्बर और लगभग 22-23 जनवरी 1947 तक, सीमा प्रान्त के हजारा जिले में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आक्रमण किये थे। वहां पर हिन्दू केवल 9% थे, उस जिले में। तो काफी मार काट हुई, कई घर जला दिए, बहुत सारी महिलाएं कुओं में कूद गईं। ये सब हुआ वहाँ पर, महीना भर चलता रहा ये वहाँ पर। तो जो लोग बच गए, भाग सके, वो भागे। और वो लोग जो वहाँ से भागे उनके लिए रावलपिंडी के पास, रावलपिंडी से कोई बीस पचीस मील के अंतर में, वाह कैंप  (Wah Refugee Camp) लगाया गया था। तो सबसे पहला जिसे शरणार्थी शिविर कहना चाहिए था वो वाह कैंप था। और ये जनवरी 1947 में शुरू हुआ था। 

जनवरी से लेकर और जो घटनाएं घटित होती रहीं मार्च में अप्रैल में वगैरह वगैरह तो आस पास के और क्षेत्रों के लोग भी भाग भाग कर वाह कैंप में आ गए। और एक स्तिथि ऐसी आ गई कि वाह कैंप में हजारों लोग आ गए। तो पहला शरणार्थी शिविर ये वाह में था। फिर उसके बाद मार्च से आरंभ हुआ सारे पंजाब में लगभग, तो उसमें जो लोगों का पलायन हुआ, तो पलायन पश्चमी पंजाब में ही कुछ लोग अपने रिश्तेदारों के यहाँ जाते रहे। कुछ पूर्वी पंजाब में आए, कुछ दिल्ली में आए। तो आमतौर पर वो पलायन लोगों का अपने रिश्तेदारों के यहाँ ही रहा। लेकिन जब 3 जून, 1947 को बाकायदा ये घोषणा हो गई कि 15 अगस्त को भारत का विभाजन कर दिया जाएगा, और पाकिस्तान बन जाएगा तो मुसलमानों को हिन्दुओं पर आक्रमण करने का एक तरह से लाइसेंस ही मिल गया। और 3 जून के बाद ये आक्रमण की श्रंखला बहुत बढ़ गई, चल तो पहले से ही रही थी लेकिन बहुत ज्यादा बढ़ गई। और जैसे जैसे 15 अगस्त निकट आता गया, यह अधिक से अधिक बढता गया। जुलाई के अंत में बहुत अधिक हो गया और 15 अगस्त तक तो काफी मामला बिगड़ चुका था और उसके बाद भी चलता रहा। 

जून  से व्यापक रूप से पलायन आरम्भ हो गया था। पलायन आरम्भ हुआ तो इसमें लोग अमृतसर में आए, जालंधर आए। जो सीमा के निकट के जिले थे ज्यादातर लोग यहाँ पर ही आए। और इन स्थानों पर जो भी धरमशालाएं थी, मंदिर थे, गुरूद्वारे थे, स्कूल थे, उनमें लोगों को ठहराना शुरू किया और वो भी सब भर गए। फिर उसके बाद लोगों ने जिनके रिश्तेदार थे, और आगे जाना शुरू किया। इसी समय इधर कुछ कैंप लगाने शुरू किये। यानी जुलाई में ही कैंप आरम्भ हो गए थे, शरणार्थी शिविर आरम्भ हो गए थे। अमृतसर में बहुत बड़ा कैंप था, एक संघ की ओर से चलाया जा रहा था, एक बाद में सरकार की ओर से शुरू हुआ, लेकिन संघ की तरफ से बहुत पहले शुरू हो चुका था। 

मधु किश्वरआप RSS की बात कर रहे हो? 

कृष्णानंद जीहाँ जी, आरएसएस के द्वारा। ऐसे ही फिरोजपुर में हुआ, अबोहर में लगे, तो ये भिन्न भिन्न स्थानों पर लगे। जैसे जैसे शरणार्थी आते गए वहां वहां कैंप लगते रहे। इसमें एक चीज और समझने की जरूरत है। जैसे हजारा में दिसम्बर और जनवरी में ये सब हुआ, उसके बाद 5 मार्च, 1947 को सारे पंजाब में एक साथ ही मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर आक्रमण आरम्भ हो गए। यानी अमृतसर में भी, लाहोर में भी, गुजरांवाला, रावलपिंडी, मुल्तान वगैरह सब स्थानों पर। सबसे ज्यादा विकट स्थिति हुई रावलपिंडी की। रावलपिंडी में सहायता की दृष्टि से एक सर्व दलीय सहायता समिति बनाई गई और मुख्य रूप से उसमें कांग्रेस थी और अन्य भी दल थे।  संघ का भी उसमें सहयोग था, लेकिन दो चार दिन में ये अनुभव आया कि कांग्रेस के लोग शरणार्थियों की सहायता करने के बजाय आत्मप्रचार पर अधिक ध्यान दे रहे हैं। यानी फोटोग्राफर चाहिए, फोटो लेना, ये सब वहाँ चल रहा था। तो इसके साथ काम नहीं हो पा रहा था। तो इसलिए राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ उससे अलग हो गया और चार पांच दिन में ही दूसरी संस्था बना ली उसका नाम था Punjab Relief Committee. पंजाब हाई कोर्ट के एक वकील थे वो पंजाब प्रान्त संघ चालक थे, उनकी अध्यक्षता में समिति बनी। तो धीरे धीरे और जो संस्थाएं थी वो कांग्रेस वाली समिति से अलग होकर इसी समिति के साथ आ गई और वो कांग्रेस वाली समिति अपने आप ही समाप्त हो गई l 

मधु किश्वरमतलब उस समय में भी ये आपसी टकराव चल रहे थे कांग्रेस, संघ और उन संगठनो में? 

कृष्णानंद जीनहीं टकराव नहीं था। कांग्रेस के लोगों में आत्मप्रचार का मामला था हर मामले में। यानी अगर कम्बल बाँट रहे हैं तो कम्बल तब तक नहीं बाँटेंगे जब तक वो कैमरा नहीं आएगा फोटो खींचने के लिए, जब तक उसकी खबर अख़बार में दे न दी जाए, ये सब बातें थी। लेकिन संघ इन सब बातों से दूर था कि मुख्य बात है शरणार्थियों की सहायता जो घायल हैं उनका इलाज होना चाहिए, जिनको आवश्यकता है अन्न की उनको भोजन मिलना चाहिए, वो उसकी चिंता न करके बाल्टियों का फोटो खींच रहे हैं, इस काम में वो ज्यादा थे। तो खैर उसमें उनका मामला अलग है तो संघ की तरफ से ये पंजाब राहत समिति बनाई गई और इसका कार्यालय लाहौर में था। लेकिन धीरे धीरे सारे पंजाब में ही इस समिति की शाखाएं फ़ैल गईं, सभी जिलों में, सभी नगरों में। तो इसीलिए मुख्य काम जो हुआ उन दिनों संघ के द्वारा जो भी काम हुआ वो पंजाब राहत समिति के नाम पर हुआ। और जो पूर्वी पंजाब में भी पश्चिमी पंजाब में भी, पंजाब समिति के द्वारा ही सारे काम हुए।

तो ये अमृतसर में जो भी कैंप खुले, जालंधर में भी खुले, या अम्बाला में खुले, या अन्य स्थानों में खुले, वो सब पंजाब राहत समिति से काम हो रहा था। तो ये जो कैंप वगैरह बने, शरणार्थी आते थे और उनको स्टेशन से ही कैम्पों में ले जाते थे। बाद में सरकार ने भी कैंप खोलने शुरू किये। तो जैसे बताया मैंने सरकार ने अमृतसर में खालसा कॉलेज में खोला, ऐसे ही अन्य स्थानों में खुले। सरकार ने जो कैंप खोले, उन कैम्पों में पूरी व्यवस्था नहीं होती थी। वहां भी फिर वही सरकारी वाला चक्कर था और ज्यादातर व्यवस्था में कांग्रेस के लोग ही होते थे। तो अब जैसा भी था कांग्रेस के लोगों की समस्या ये थी कि उनके बनाए गए कैम्पों में लोग जाते नहीं थे। लोगों को पता था कि वहां कुछ होना नहीं है। एक बड़ी मजेदार घटना है अमृतसर की कि संघ के द्वारा जो कैंप चल रहा था, तो हर रोज ट्रक भर भर के सामान आता था, जाता था, आटा लेकर जाते थे, दालें लेकर जाते थे, सब सामान जाता था उस कैंप में। तो एक बार एक ट्रक सामान भरकर कैंप की तरफ चला, तो एक अमृतसर की कांग्रेस नेत्री थी, वो उस ट्रक के आगे आकर लेट गई और कहने लगी कि ये ट्रक कांग्रेस के कैंप में लेकर जाओ, ये यहाँ से चलेगा ही नहीं। बड़ा उसको समझाया, हाथ पैर जोड़े, मिन्नतें की, लेकिन वह लेटी रही। तो  वहां एक अधिकारी थे, जब वो काफी कुछ करने के बाद भी नहीं उठी, तो उन्होंने जो भी ट्रक को चलाने वाले थे उनसे कह दिया कि चला दो ट्रक इसके ऊपर से। उसने जैसे ही ट्रक शुरू किया और थोडा सा चलाया, तो वो उठ कर भाग गई। 

जो संघ के द्वारा चलाये गए शिविर थे, संघ की सारी मशीनरी इन शिविरों को चलाने में लगी रही है सभी स्थानों पर। इसके अलावा गुरुद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा भी कैंप लगाये गए। अधिकांश कैंप सामान्य होते थे। कुछ अलग अलग भी होते थे, लेकिन काम सबका एक ही था। जो उधर से आ रहे हैं उनके भोजन की व्यवस्था, जो घायल हैं उनके इलाज की व्यवस्था, दवाई की व्यवस्था वगैरह। अमृतसर में तो एक बहुत बड़ी टीम थी डॉक्टर्स की जो अमृतसर मेडिकल कॉलेज के छात्र थे और अध्यापक थे। उनकी टीम अन्य स्थानों पर भी जाती थी और जो मैंने वह कैंप की बात बताई है तो अमृतसर से कई टीमें बारी बारी से वाह कैंप में भी गई थी और ये सब जुलाई महीने की बात बता रहा हूँ। 

तो अन्य स्थानों पर भी ये सब जाते थे, लेकिन जब मामला और आगे बढना शुरू हो गया, पलायन ज्यादा शुरू हो गया, तो फिर लोग आगे जाने लगे और आगे सरकार के द्वारा ही गाड़ियाँ आ रहीं थीं। और वो गाड़ियाँ फिरोजपुर में नहीं रोकी जाती थीं, अबोहर में नहीं रोकी जाती थी। वो सीधे उधर से आई और उनको पानीपत रोक रहे हैं, कुरुक्षेत्र रोक रहे हैं, करनाल रोक रहे हैं, उधर कैंप बनाए गए। तो ये कैंप ज्यादाटार सरकार के द्वारा बनाए गए थे। उनमें भी संघ के लोग काम कर रहे थे, लेकिन कैंप सरकार के द्वारा बनाए गए थे। गाड़ियाँ ही सीधी वहां ले जाई जाती थीं। अमृतसर, जालंधर फिरोजपुर के कैम्पों में तो जगह ही नहीं बची थी उनको रखने की, इसलिए वो सब इधर आ रहे थे। जैसे जैसे स्तिथि बढ़ती गई कैंप और दूर दूर लगने लगे तो हर कैंप में हजारों लोगों की संख्या होती थी। अब इन कैम्पों की जो दुर्दशा थी वो बड़ी विचित्र थी लेकिन अब लोग जैसे तैसे रह रहे थे।

मधु किश्वरवो टेंट क्या थे? मतलब किसी स्कूल इमारत में थे? 

कृष्णानंद जीऐसा है कि शुरू शुरू में तो स्कूल बिल्डिंग में शुरू किये गए लेकिन स्कूल बिल्डिंग्स तो बहुत छोटी पड़ गई, तो फिर टेंट्स लगाये गए। टेंट तो लगाये गए लेकिन अब ये था कि लोग शौच कहाँ जाएं? तो शौच के लिए लोग दूर जाते थे, कहीं भी जाए लेकिन हजारों लोग जा रहे हैं हर रोज की गंदगी, गन्दी हवा वो भी समस्या होती थी। अब लोग रह रहे हैं तो नालियों की व्यवस्था नहीं, ये सारी समस्या वहां थीं इसलिए कई कैम्पों में हैजा भी फ़ैल गया और उससे भी कई लोग पीड़ित हुए और कईयों की मृतयू हो गई। 

मधु किश्वरखाना कैसे था? लंगर था या हर परिवार को अपना बनाना पड़ता था? 

कृष्णानंद जीबहुत स्थानों पर तो लंगर होता था। संघ के द्वारा जो कैंप चलाए गए उनमें तो लंगर व्यवस्था थी, और लंगर भी बहुत व्यवस्थित होता था। जैसे फिरोजपुर कैंप था उन्होंने वहां व्यवस्था बनाई क्योंकि हर रोज जो कैंप में लोग थे वो स्थाई नहीं थे। रेलगाड़ी आई, उतरे, कैंप में उनको ले जाया गया। और वो जो वहां एक दिन रहे दो दिन रहे, लोग आगे चले जाते थे अपने रिश्तेदारों के यहाँ, मिलने वालों के यहाँ, कुछ जाते रहते थे और नए आते रहते थे गाड़ियों से। तो आना जाना लगा रहता था। कैंप भरे रहते थे। तो वहां ये व्यवस्था की गई कि हर रोज सुबह संघ के कार्यकर्ताओं की टीम वहां कैंप में चक्कर लगाती थी। वो हर परिवार के पास जाती थी, कौन सा परिवार है, आपके परिवार के कितने सदस्य हैं। जितने सदस्य हैं उतने पड़ची पर लिखकर वो उनको दे देते थे, तो ऐसे वो पड़चियाँ उनको बांटते थे सदस्यों की संख्या लिखकर और दोपहर को समय तय होता था कि उस जगह पर वो भोजनालय है, वहां पर एक व्यक्ति आ जाय वो अपने परिवार के सब लोगों का भोजन ले जाय।

तो इस प्रकार से वहां ये व्यवस्था थी। तो अलग अलग कैम्पों में, स्थानों में, उन्होंने अपने अनुसार व्यवस्था बनाई हुई थी। कुछ स्थानों में तो शुरू शुरू में ये भी हुआ कि कोई शिविर उस तरह का था नहीं, भोजन की व्यवस्था थी नहीं। तो ये भी किया गया कि घरों में, गली में, बाकायदा मुनादी करके कि वहां पर इस तरह से हजारों लोग आए हुए हैं, उनके लिए भोजन चाहिए। इसलिए हर घर से पांच पांच, दस दस व्यक्तियों का भोजन बनाकर दीजिये, दोपहर को हमारे कार्यकर्त्ता आएंगे आप उनको दे दीजिये। तो पैकेट वो उनको दे देते थे और संघ के कार्यकर्त्ता उनको लेकर शिविर में पहुंचते थे, और वहां पर वो उनको वितरित करते थे। लेकिन जब ये मामला बहुत बढ़ गया तो ये घरों वाली स्थितियां तो संभव ही नहीं थीं, तो फिर वहीँ पर बनाने की व्यवस्था की गई।

अब इसमें जो बड़ी भारी समस्या आई, उन दिनों आटा नहीं मिल रहा था। तो उस समय एक थे स्वामी सत्यानन्द जी, जो श्री राम शरणम् के संस्थापक हैं। इनका उन दिनों इस दृष्टि से बड़ा योगदान रहा। उनके कई अच्छे अच्छे शिष्य थे संपन्न सेठ, अमृतसर में भी एक मिल थी तो उसके मालिक थे बिमानी। वो बिमानी सत्यानन्द जी के शिष्य थे। सत्यानन्द जी ने उनको ये कहा कि शिविर में आटे की कमी नहीं होनी चाहिए, ये तुम्हारे जिम्मे है। तो वो हर रोज ट्रक भर के आटा वहां भेजते थे। जितनी भी आवश्यकता होती थी, वो वहां भेजते थे। ऐसे भिन्न भिन्न स्थानों में सब लोगों ने सहयोग किया, सम्पूर्ण समाज के लोगों ने सहयोग किया। 

कैंप केवल संघ के लोगों ने ही नहीं चलाया, बल्कि पूरे हिन्दू समाज ने उसके लिए सहयोग किया। आटा दिया, दालें दी, सब्जियां दी, दूध देते थे और काम भी करते थे। तो ये सारी चीजें उन दिनों होती थीं। अब कैम्पों की जो स्तिथि थी, सरकारी कैंप जो होते थे उनमें जो दुर्दशा होती थी, उस दुर्दशा के कारण लोगों में बड़ा रोष था। पहला रोष तो ये ही था कि हमें वहां से निकलकर आना पड़ा, हमारे कितने लोग मारे गए ये तो पहला रोष था ही। अब यहाँ भी आकर कोई उसकी व्यवस्था नहीं थी ठीक से। जो लोग आगे जाना चाहते थे वो भी अपनी इच्छा से नहीं जा सकते थे, गाडी जहाँ ले जाए। अब गाडी जहाँ ले जाए तो ये सुनकर आपको शायद आश्चर्य होगा कि पंद्रह अगस्त के कुछ ही दिन बाद, शायद दस पंद्रह दिन बाद, अंबाला से उत्तर प्रदेश को गाड़ियाँ भेजना बंद कर दिया गया था सरकार की ओर से। यानि अम्बाला से सहारनपुर कोई नहीं जा सकता था र्रेल भी बंद, बस भी बंद, ये स्तिथि थी। इसलिए बहुत सारे लोग जिनके रिश्तेदार उत्तर प्रदेश में थे और वो वहां जाना चाहते थे, अब वो अम्बाला में अटके पड़े थे। 

मधु किश्वरतो रोका क्यों? क्यों सरकार रोकती थी? 

कृष्णानंद जीरोकते नहीं थे, रोक दिया गया था। अब शायद उसका कारण ये होगा कि उत्तर प्रदेश सरकार को ये लगता हो कि ये अगर उत्तर प्रदेश में चले जाएंगे तो उत्तर प्रदेश में भी एक प्रतिक्रिया होगी और वहां पर भी ये सब लोग मुसलमानों पर आक्रमण कर देंगे। ये शायद कारण हो सकता होगा, जो भी हो लेकिन उत्तर प्रदेश को अम्बाला से गाड़ियाँ जाना बंद हो गईं थीं। और शायद कई महीनों तक बंद रही। हरीद्वार भी लोग नहीं जा सकते थे, कुछ लोग जो गए वो पैदल गए, बहुत थोड़े से गए पैदल। ये भी किया गया उन दिनों सरकार के द्वारा। ये एक अवस्था थी हर जगह की। अब इस अवस्था में लोग जैसे जैसे आगे बढ़ते गए, दिल्ली भी बहुत सारे पहुंचना शुरू हो गए। कईयों के रिश्तेदार रहते थे दिल्ली में पहले से। पहले तो जंक्शन पर भी उतरते थे, लेकिन कुछ दिनों के बाद वो गाडी सब्जी मंडी स्टेशन पर ही रोक दी जाती थी और सब्जी मंडी  स्टेशन पर ही लोग उतर जाते थे। ये लगता होगा शायद कि इधर शहर में ज्यादा गड़बड़ शुरू हो रही है क्योंकि दिल्ली में भी मुसलमानों ने 1946 से ही हिन्दुओं पर आक्रमण करने शुरू कर दिए थे। कई तरह की घटनाएं हो चुकी थीं। इसलिए यहाँ भी काफी टेंशन थी। दिल्ली में पहाड़गंज में, चांदनी चोक में, सीताराम बाजार, काली मस्जिद, सारा क्षेत्र जो था सदर बाज़ार वगैरह, इन सब जगहों पर काफी टेंशन थी। तो कैंप जो बनाया गया था वो गुरु तेग बहादुर नगर में बनाया गया था।

मधु किश्वरपुराना किला में भी कैंप था। सफदरजंग एयरपोर्ट पर भी था। 

कृष्णानंद जी :  पुराना किला, वो शुरू में हिन्दुओं का था लेकिन बाद में मुसलमानों का कैंप वहां पर बनाया गया। हिन्दुओं का किंग्सवे कैंप बनाया गया, अन्य कई जगहों पर भी बनाया गया। एक ही जगह कैंप नहीं बना, कई जगह पर बना। तो दिल्ली में भी लाखों शरणार्थी आए। अब लोगों की स्तिथि थी कि यहाँ आकर अपने को सेटल करना है किसी तरह से। वो उसी में लगा रहता था लेकिन जब तक कोई रोजी रोटी की व्यवस्था नहीं कर पाता था तब तक क्या करे? तो कैंप में तो उसे रहना पड़ता था। लेकिन वहां जो स्तिथियाँ थी वो अजीब प्रकार की थी। उससे भी उनको बड़ा रोष होता था। इसी प्रकार से ये अम्बाला में कैंप लगा, हरिद्वार में भी कैंप लगा। तो एक बार इंद्रा गाँधी हरिद्वार गई और वहां जाकर उन्होंने अपना कुछ उपदेश चालू किया होगा तो उस कैंप में जो महिलाएं थीं, वो बिफर पड़ी और उन्होंने इंद्रा गाँधी के बाल पकड़ कर खींचे। ये स्तिथि इंद्रा गाँधी की हुई वहां पर। जब वो वापस आई तो नेहरूजी को पता लगा होगा, उसके बाद नेहरूजी गए हरिद्वार। 

नेहरूजी की भी स्तिथि वहां बनी कि वो वहां पर भाषण नहीं कर सके। उनके लिए बाकायदा व्यवस्था की गई थी वहां पर, वो तो सरकारी व्यवस्था थी, प्रधानमंत्री थे वो उस समय। लेकिन वो भाषण नहीं कर पाए और लोग उनसे सवाल पर सवाल पूछ रहे थे कि तुमने क्या किया? हमारे लोग मारे गए। तो इतने लोग गर्म थे कि नेहरूजी का कुरता भी फट गया था और नेहरूजी इतना घबरा गए कि वो जिस रास्ते से हरिद्वार पहुंचे थे मेन रोड से उस रास्ते से वापस नहीं आए, दूसरे रास्ते से आए ज्वालापुर की ओर से। उन्हें लगा कि इस रास्ते से अगर वापस जाएंगे तो शरणार्थी तो बहुत दूर तक हैं तो पता नहीं क्या हालत होगी? सरकारी व्यवस्था भी यही थी कि दूसरे रास्ते से वापस जाएंगे। ये नेहरूजी के साथ भी हुआ। मुझे ये जवाहरलाल जी की बात बताई वो गुरुकुल कांगड़ी के उस समय छात्र थे। उन्होंने बताई कि हमें पता लगा कि नेहरु जी यहाँ आने वाले हैं गुरुकुल की तरफ से निकलेंगे। तो उनका पहले तो कार्यक्रम था नहीं उधर से निकलने का, हमने उनके स्वागत वगैरह की व्यवस्था की। वो आए तो उनका कुरता फटा हुआ था, वो तो खैर फिर चले गए। तो हमने गुरुकुल के आचार्य से पुछा कि ये नेहरूजी का कुरता फटा हुआ था ये कैसे फट गया? उन्होंने ये बताया कि वहां पर इस इस प्रकार का हुआ और ये तो लोगों से घिर गए थे और उनमें इतना गुस्सा था कि उनका कुरता लोगों ने फाड़ा था।

मधु किश्वरतो गुरुकुल ने उनको स्वागत क्यों दिया? 

कृष्णानंद जीनहीं नहीं स्वागत नहीं, वो अंदर नहीं गए थे वो तो गुजरे थे वहां से। प्रधानमंत्री वहां से गुजर रहे थे तो कुछ छात्र इकट्ठे हो गए थे, वहां पर बस इससे ज्यादा कुछ नहीं था। यानी नेहरूजी का भी कुरता फाड़ा गया ये बात इसमें है। अब इस प्रकार की जो स्तिथियाँ हैं तो लोगों में बहुत रोष था। अब इसी प्रकार से एक और घटना जो दिल्ली में हुई जैसे सब धरमशालाएं भर गईं, स्कूल भी भर गए और कैम्पों में भी ज्यादा जगह नहीं थी। जो भी मुसलमानों के घर खाली दिखाई दिए, उनमें जाकर लोग रहने लगे, मस्जिदें जो खाली मिली वहां रहने लगे। क्योंकि यहाँ से भी मुस्लमान काफी चले गए थे, अब चले गए थे तो उनके घर खाली थे, मस्जिदें खाली थी, तो जो खाली थे उनमें ये शरणार्थी जाकर बसने लगे। ऐसे ही एक हौज खासी की  मस्जिद थी। जब मुल्तान से गाडी आई तो उतरकर उन्होंने देखा इधर उधर तो पाया कि हौज़ खासी की मस्जिद खाली है, जो लोग आए थे मुल्तान से वो सारे के सारे हौज खासी वाली मस्जिद में चले गए। 

नवेम्बर के महीने में एक रात को उसमें पुलिस आ गई और पुलिस ने सबसे कहा कि निकल जाओ यहाँ से। लोग बड़े हैरान कि क्या बात है जी? क्यों निकाल रहे हैं, सर्दी का मौसम है? तो कारण ये बताया कि गांधीजी का हुकुम है। तो सबको आश्चर्य हुआ कि गांधीजी का हुकुम कैसे हो सकता है? लेकिन अब पुलिस ने निकाल दिया तो बेचारे निकले और निकलकर मस्जिद के बाहर रात भर सर्दी में ठिठुरते रहे। अब उनमें एक सज्जन थे जो मुल्तान में कांग्रेस के सचिव थे। वो कहने लगे कि चिंता मत करो मैं सुबह जाऊँगा कांग्रेस के पास और गांधीजी की शिकायत करूंगा। सुबह हुई और वो गए गांधीजी के पास और उनसे कहा कि उनको निकाल दिया गया है गाँधी जी के आदेश पर, और गांधीजी ने उनको टका सा जवाब दे दिया।

मधु किश्वरटका सा जवाब. एक बार नहीं, कई बार लोग गांधीजी के पास गए थे। इसका काफी वर्णन है, इसका विरोध करने गांधीजी के पास गए और गाँधी जी ने झाडा, फटकारा, टका सा जवाब देकर। एक वाक्य में आप कह रहे हैं, बहुत ही अभद्र तरीके से उन्हें फटकारा, ये कई गवाही मैंने सुनी हैं। 

कृष्णानंद जीये तो मैंने विशिष्ट घटना बताई है एक स्थान की, लेकिन ये अनेक बार हुआ है और उसके बाद तो फिर ये शरणार्थी जलूस बनाकर जाते थे। वहां गांधीजी के सामने प्रदर्शन करते थे, गाँधी मुर्दाबाद के नारे लगते थे और मुझे कई लोगों ने बताया कि यहाँ तक भी नारे लगाये। जब भूख हड़ताल रखी गांधीजी ने तो प्रदर्शन भी किये और नारे भी लगाये कि, “बुड्ढे को मरने दो, बुड्डे को मरने दो”। इतना अधिक लोगों में रोष था। अब गांधीजी असल में लोगों से यही कहते थे कि तुम लोग वहां से वापस क्यों आए, तुम्हें वहीँ मर जाना चाहिए था। अनेक बार उन्होंने अपने प्रार्थना प्रवचन में ये बात कही है कि तुम लोगों को वहीँ मर जाना चाहिए था, तुम लोग वहां से आए ही क्यों?

मैंने परसों आपको बताया था गुरुद्वारा पंजासहब की घटना के बारे में, तो पंजासहब वाले तो रहे थे इकठ्ठा कि एक साथ हम सुरक्षित निकल जाएंगे। उन्होंने अगस्त के पहले सप्ताह में निकलने की योजना बना ली थी तभी गांधीजी पहुँच गए और बोले कि तुम्हें कुछ नहीं होगा, तुम्हारी सब प्रकार की सुरक्षा की पूरी व्यस्वस्था है। सब सरकार करेगी, ये करेगी, वो करेगी। उनको खूब आश्वाषन दिए गांधीजी ने और उसके कारण जो बिलकुल अपने बिस्तर तैयार कर चुके थे बाँधकर उन्होंने फिर अपने बिस्तर खोल लिए। उसके पांच दस दिन बाद ही वहां पर हमला हुआ और उनमें से अधिकांश लोग मारे गए, कम ही बच पाए। तो ये सब परिस्थितियां थी उस समय और इन सब परिस्थितियों में बड़ा ही रोष था गांधीजी के प्रति और जवाहर लाल जी के प्रति भी। 

अब जवाहरलाल जी की क्या स्थिति थी?  वो अपने को बहुत बहादुर मानते थे और प्रचार भी बहुत किया जाता है कि बहुत बहादुर थे। अब कैसे बहादुर थे? 5 मार्च, 1947 से मुसलमानों ने पंजाब में आक्रमण करने शुरू कर दिए थे बहुत जगहों पर। अमृतसर में अनेक मोहल्लों को आग लगा दी गई थी और उसमें एक है कटरा जैमल सिंह, वो करीब सारा ही जल गया था। थोडा बहुत ही बचा था। तो मार्च के मध्य में नेहरूजी अमृतसर गए और उन्होंने अमृतसर का पूरा दौरा किया। जब वो कटरा जैमल सिंह में गए तो वहां पूरा मलबा पड़ा हुआ था दुकानों का, मकानों का। तो उसको देखकर वो बोले कि ऐसा लगता है जैसे यहाँ पर कोई बहुत बड़ी बमबारी हुई हो। इस प्रकार की स्तिथि थी कटरा जैमल सिंह की और अन्य भी मोहल्लों में बहुत कुछ था और लगभग आधा शहर जल गया था।

अब अगले दिन कुछ हिन्दुओं का शिष्ट मंडल नेहरूजी से मिलने गया जो कि सर्किट घर में ठहरे हुए थे। और उन लोगों से कहा कि देखिये ऐसी स्तिथि है कुछ करिए। उन्होंने कहा कि हमसे जो हो सकता है सरकार तो कर रही है। उन लोगों ने कहा कि सरकार क्या कर रही है? अगर सरकार कुछ कर रही होती तो हमारी स्तिथि ऐसी होती? तो उन्होंने कहा कि देखो सरकार इससे ज्यादा नहीं कर सकती है, और आपको तो अब अपनी सुरक्षा व्यवस्था खुद करनी पड़ेगी। सरकार इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकती है। उन लोगों ने कहा कि ठीक है अगर हमें खुद ही करनी है तो हम खुद ही कर लेंगे, आप हमें हथियार दीजिये हम अपनी सुरक्षा खुद कर लेंगे, हम आपसे बिलकुल भी नहीं कहेंगे करने के लिए। नेहरूजी बोले कि ये कैसे हो सकता है? अगर सरकार हिन्दुओं को शस्त्र देगी, तो मुस्लमान भी मांगेंगे और मुसलमानों को भी देने पड़ंगे। ये उत्तर था नेहरूजी का।

उनमें से एक सज्जन बोले कि ठीक है अगर आप नहीं दे सकते तो हमें जहर ही दे दीजिये। हम मर जाएँ लेकिन इनके हांथों से तो न मरें। अब इस तरह का उत्तर शायद नेहरूजी की उम्मीद में नहीं था। तो वो दो मिनट तक चुप रहे और फिर बोले कि भाई देखो हमने इन सब का इलाज सोच लिया है कि हम पाकिस्तान स्वीकार कर लेंगे। ये नेहरूजी ने मार्च 1947 को अमृतसर में कहा है। वो घोषणा वगैरह तो बाद की बातें हैं। माउंटबेटन के साथ समझौता तो जून में हुआ। कांग्रेस ने विभाजन के बारे में, विभाजन स्वीकार करने के बारे में, मार्च में ही सोच लिया था।

मधु किश्वरऔर कोई तैयारी नहीं की कि जब लोग वहां से खदेड़े जाए तब क्या होगा? 

कृष्णानंद जीकुछ नहीं, ये मार्च में अमृतसर में कहा है नेहरूजी ने।

मधु किश्वरअच्छा पानी कहाँ से आता था कैम्पस में, सबसे बड़ी समस्या तो पानी पीने की होगी, कहाँ से आता होगा कैम्पों में पानी? 

कृष्णानंद जी:  समस्याएँ तो बहुत सारी थी, और पानी की भी समस्या थी। उन दिनों तो हैंडपंप होते थे, या कुंअे  होते थे, कुंए तो जहाँ बने हैं वहीँ हैं। हैंडपंप थोड़े से और लगा दिए गए तो ज्यादा कुछ हो नहीं पाता था। लेकिन अब समस्या तो थी ही। उन सब समस्याओं के होते हुए भी लोग रह रहे थे कैम्प में जैसे तैसे। अब देखिये दिक्कत क्या थी और कैसे कैसे काम करने पड़े होंगे लोगों को। ये जो पंजाब राहत समिति बनाई थी, इसके कई विभाग बनाए गए थे। मतलब एक विभाग बनाया चिकित्सा का, वहां वाहन विभाग ये अलग विभाग था, फिर ये शस्त्र विभाग, शस्त्र इकठ्ठा करना और लाना ये अलग विभाग था, शस्त्र सञ्चालन यानि ट्रेनिंग ये अलग विभाग था। फिर भोजन विभाग, शरणाथियों की सारी देखभाल सामान वगैरह की व्यवस्था ये भी एक अलग विभाग था। ऐसे लगभग तेरह चौदह अलग अलग विभाग थे। हर विभाग का एक एक प्रमुख व्यक्ति हर जिले में, हर नगर में बनाया गया था और ये सारे काम उन दिनों हुए हैं।

मुसलमान आक्रमण होते थे, उन आक्रमणों  का प्रतिरोध करना है। तब ये थोड़े ही है कि वो तलवार और भाले लेकर आ रहे हैं, और यहाँ हम रसगुल्ले फेंककर देंगे। उन दिनों तलवार से तलवार भिड़ी हैं, भाले से भाले भिड़े हैं, बन्दूक से बन्दूक भिड़ी हैं, बम से बम भिड़े हैं। सब प्रकार के शस्त्रों का उपयोग उन दिनों किया गया है तब जाकर कुछ लोग जो चालीस पचास लाख जितने भी बच पाए हैं। और अगर नेहरु जी के हिसाब से रहते और गांधीजी के हिसाब से रहते तो एक भी बचकर ना आ पाता, सारे के सारे मारे जाते, ऐसी वहां की स्थितियां थी। 

मधु किश्वरआज भी मर रहे हैं वहां पर। पाकिस्तान में आज भी मर रहे हैं हिन्दू, बंगला देश में आज भी मर रहे हैं और हमारी सरकार आज भी चुप है। आज कौन सा हमारी सरकार जग गई है कि आप इस तरह हिन्दुओं का क़त्ल नही कर सकते हैं, उनकी बेटियां नहीं उठा सकते हैं, आज भी कौन सा सरकार जग गई है? अच्छा एक और सवाल था मेरा ये तो संघ का आपने बताया, दूसरा सरकार ने अपने कैंप लगाये और कुछ एक कैम्पों में जैसे कमला देवी चट्टोपाध्याय ने काम किया जो कांग्रेस की वरिषठ नेता थीं। उन्होंने फरीदाबाद वगैरह में बसाने का काम किया। लोगों ने तो किया ईमानदारी से परन्तु गुरुद्वारों ने भी तो किया होगा। उस समय ये तो नहीं था कि खालिस्तानियों के हाथ में हैं गुरूद्वारे। 

कृष्णानंद जीगुरुद्वारा प्रबंधक समिति के भी कैंप थे, और अन्य कैंप भी थे, तो कई कई कैंप थे। इसमें जब मैं हिन्दू कहता हूँ, तो उसमें सिख भी आ जाते हैं, ये अलग नहीं हैं। उन दिनों सारा काम हिन्दू के नाते हो रहा था, उसमें न कोई संघ था, न कोई सोशलिस्ट था, न कोई और था। हिन्दू के नाते हो रहा था, मंदिरों में भी हो रहा था सारा काम, गुरुद्वारों में भी हो रहा था। अमृतसर में सबसे अधिक संघर्ष हुआ है और 5 मार्च को जो संघर्ष शुरू हुआ अमृतसर में वो लगातार छे महीने चलता रहा, रुका ही नहीं। ये अमृतसर की विशेषता है।

मधु किश्वरसंघर्ष का क्या मतलब? 

कृष्णानंद जीसीधा सीधा हिन्दू मुसलमान संघर्ष। आप समझने की कोशिश करिए। अमृतसर में 5 मार्च से ही हिन्दुओं ने मुसलमानों से मोर्चा लेना शुरू कर दिया था, इसलिए मैं ये कह रहा हूँ कि अमृतसर की विशेषता है ये। आरम्भ में दो चार दिन तो लाठी कुल्हाड़ी से ही काम हुआ है, कुछ नहीं था लोगों के पास। लेकिन उसके बाद उन्होंने सामान बनाना शुरू कर दिया, इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। पंद्रह दिन बाद बम बनाने शुरू कर दिए थे, लेकिन वो बम देशी बम थे, बोतल बम ये शुरू हो गए थे अमृतसर में। और कुछ समय के बाद बाकायदा पूरे बम। वो बम कहाँ बनते थे ये तो किसी को पता नहीं था लेकिन ये कहा जाता था कि ये बम दरबार साहब से बनकर आ रहे हैं। 

तो अब वो दरबार साहब में बनते थे, कहाँ बनते थे। खैर दरबार साहब में तो नहीं बनते होंगे, नाम दरबार साहब का आता था। तो उन दिनों ये जो सारा संघर्ष हुआ है वो मिलकर हुआ है। ऐसा नहीं है कि कोई एक ही बिरादरी के लोग थे। ये ठीक है कि जो मोर्चे लगे उन मोर्चों का नेतृत्व अधिकतर स्थानों पर संघ के स्वयं सेवकों ने किया, योजना संघ के सेवकों ने बनाई और क्रियान्वित किया और उस क्षेत्र के सब लोगों उस योजना के अनुसार चले, ये मुख्य बात है।

अब देखिये आपने ये जो प्रश्न उठाया है कि जब 5 मार्च को अमृतसर में शुरू हुआ, छे या सात तारिख को होली थी, ये बहुत बड़ा त्यौहार होता है सिखों का आनंद्साहब में। तो गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के जो सिख नेता थे वो अधिकांश आनंद्साहब गए हुए थे। अमृतसर में सिख नेताओं में केवल एक थे, वो थे जत्थेदार उधमसिंह नागोके। बाकी कोई सिख नेता अमृतसर में नहीं था। तो ये जब शुरू हुआ तो मुसलमानों ने तो ये बिलकुल तय कर लिया था कि आनंद्साहब को ख़तम कर देना है और उन्होंने कोशिश की। ये आठ या नौ मार्च की बात है, उधमसिंह नागोके का फोन गया संघ कार्यालय। संघ का मुख्य कार्यालय लॉरेंस रोड पर था और वहां फोन था। लेकिन शहर में संघ कार्यालय में फोन नहीं था और वैसे भी शहर में फोन इक्का दुक्का लोगों के ही पास थे और ये दरबार साहब में फोन था। तो वहां उन्होंने संघ कार्यालय में फोन किया और उन्होंने कहा कि इस इस तरह से चारों तरफ से मुसलमानों की नारेबाजी की आवाज आ रही है सुबह सुबह। और ये लग रहा है कि ये सब दरबार साहब की तरफ आने वाले हैं तो कुछ करिए। तो उन्होंने कहा कि आप चिंता मत करो हम आ रहे हैं। 

वो तो काम था संघ कार्यालय लॉरेंस रोड का, लेकिन ये उधम सिंह नागोके ने जिन नारों को सुना था उन्ही नारों को शहर में जो संघ के बाकी कार्यकर्ता थे उन्होंने भी तो सुना था। इसलिए ये सब लोग पहले ही निकल आए अपने घरों से। अमृतसर के प्रधान कार्यवाहक थे गोवर्धन लाल चोपड़ा, इनका घर जैमर सिंह के पास था तो ये भी  कार्यकर्ताओं के साथ निकले। ये सब लोग दरबार साहब पहुंचे। दरबार साहब में नौ बजे तक गोवर्धन लाल चोपड़ा जी, सरदार उधम सिंह नागोके और सात आठ संघ के और कार्यकर्ता, ये वहां पहुंचे इनकी वहां मीटिंग हुई। लेकिन इस मीटिंग से पहले ही गोवर्धन लाल चोपड़ा जी ने सभी शाखा क्षेत्रों में सूचना भेज दी थी कि अपनी अपनी शाखा क्षेत्रों से ऐसे स्वयं सेवक जो बिलकुल मरने मारने पर तत्पर हों, डरने वाले ना हों, ऐसे दो दो चार चार जितने भी हो सकते हों भेजो दरबार साहब की तरफ। घंटाघर चोक भेजो। तो ये सब सूचना उन्होंने पहले भेज दी थी।

वहाँ चमड़ा बाज़ार, रामबाग वगैरह ये सब मुसलमान क्षेत्र था और उस मुसलमान क्षेत्र में बड़े जोर के नारे लग रहे थे, हजारों की संख्या में लोग वहां सुबह से इकठ्ठा हो रहे थे। निश्चित है कि इकठ्ठा हो रहे हैं तो उनकी योजना यही है कि यहाँ पर आएंगे। इसलिए वहां पर जो जो रास्ते दरबार साहब को जाते थे उन सब रास्तों पर नाकाबंदी की गई, मोर्चे बनाए गए और उनमें से एक मोर्चा जलियांवाला बाग पर था, एक मोर्चा चमड़े वाले बाज़ार पर था, एक मोर्चा कपडा बाज़ार पर था। तो इस तरह से सात आठ मोर्चे बनाए गए हिन्दुओं द्वारा जिससे मुस्लमान उधर आ ना सकें, उनका प्रतिरोध किया जाए। तो ये मोर्चे मुसलमानों के आने के पहले बना लिए गए और हर मोर्चे पर लगभग चार सौ  पाँच सौ लोग थे और ये सारे लोग संघ के नहीं थे, स्थानीय लोग थे। आस पास की गलियों के रहने वाले लोग थे जिसमें सिख के अलावा और लोग भी थे। उसमें कोई भेदभाव वाली बात नहीं थी प्रश्न अस्मिता का था। 

ये सब मोर्चे बाहर की तरफ थे और आखिरी मोर्चा बनाया गया चौक घंटाघर पर, वो मुख्य मोर्चा था। इस घंटाघर पर तीन दल थे, एक दल था संघ के स्वयंसेवकों का, एक दल था लाला साईं दास का, वो पहलवान थे, उनका अखाडा चलता था। और एक दल था उधमसिंह नागोके के लोगों का, एक दल था गुरूद्वारे में सुरक्षा कर्मचारियों का। उसमें काम बांटा गया और काम ये था कि द्वार के बाहर जो संघ के सदस्य थे वो तीस पैतीस थे। वो वहां रहेंगे, फिर बिलकुल द्वार की दहलीज पर जो लाला साईं दास के लोग थे वो रहेंगे, और दहलीज के अंदर सुरक्षा कर्मचारी जो उधम सिंह नागोके के थे वो रहेंगे। तीन बंद बनाए गए वो ऐसे कि अगर कोई एक मोर्चा टूट गया, जो बाहर सात आठ मोर्चे लगे थे, और मुसलमानों का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया तो वो यहाँ आएंगे। और यहाँ पर पहला मोर्चा संघ के लोगों का था और उससे आगे बढेंगे तो दूसरा मोर्चा लाला साईं दास का था। तो उस तरह से पूरी योजना बनाई गई थी और पूरी मोर्चाबंदी की गई थी। उनका हमला हुआ, लगभग दस हज़ार मुसलमानों का जत्था था। वो आए नारे लगाते हुए लेकिन जैसे ही वो आए उनको ये आशा नहीं थी कि यहाँ मोर्चे लगे होंगे। जब उन्होंने देखा कि ये तो तैयार खड़े हैं, और इधर भी नारे लगते रहे, तो वो ठिठक गए।

अब यहाँ भी लोग तलवारें लहरा रहे थे और वहां भी लोग तलवारें लहरा रहे थे। तो एक बार वो तलवारें लहराते लहराते आगे आ गए, जब वो आए तो इधर से भी लोग तलवारें लहराते हुए आगे बढ़े तो वो लोग पीछे हट गए। फिर दोनों तरफ से ईंट पत्थर चलने लगे और ये लगभग तीन चार घंटे चलता रहा, लेकिन फिर उन लोगों ने आगे बढने की हिम्मत नहीं की। उनको लग गया कि ये सब तैयार हैं और अगर हम और आगे बढेंगे तो काम नहीं बनेगा। दिन के तीन चार बजे के बाद वो वापस चले गए।

मधु किश्वरआपको याद है कि क्या शब्द थे उन नारों के? 

कृष्णानंद जीदेखिये उनके नारे बड़े सीधे थे “दरबार साहब को तोड़ देंगे, ग्रन्थ साहब को फाड़ देंगे, यहाँ पर हम गायों को काट कर उनका खून डालेंगे। आग लगा दो दरबार साहब को।” ये सब था, बड़े स्पष्ट नारे थे मतलब कोई लुकी छुपी बात नहीं थी और जो आम नारे हैं तदबीर अल्लाह ओ अकबर, इस्लाम लेकर रहेंगे ये तो थे ही।

मधु किश्वरहिन्दुओं के क्या थे? 

कृष्णानंद जीहिन्दुओं के नारे थे, “रूद्र देवता जय जय काली , हर हर महादेव, जय वीर बजरंगी, सत श्री अकाल”, ये सब तरह के नारे थे। हिन्दू अपने नारे लगाते थे, उधर से वो अपने नारे लगाते थे। 

मधु किश्वरमैं ये जानना चाहती हूँ, जो संघ की उस वक्त की तैयारी थी, सैन्य तैयारी, वैसे कैंप लगाने में और कामों में तो उनकी खूब तैयारी है। उसमें आज भी कोई कमी नहीं आई है। बल्कि बढ़ौतरी हुई होगी पर आतंकवादी तैयारी क्या आज भी है संघ की? मान लो जहाँ मैं रहती हूँ यहाँ भी जरूर हैं संघ के लोग। अगर हमला हो हमारे उपर तो क्या संघ उसका जवाब दे पायेगा? 

कृष्णानंद जीदेखिये मैं संघ का प्रवक्ता नहीं हूँ न मैं कोई संघ का अधिकारी हूँ। और इसलिए मैं इसके विषय में अधिकृत उत्तर कोई भी नहीं दे सकता और न मुझे देना चाहिए। लेकिन मेरा इतना कहना है सामान्य दृष्टि से कि हिन्दू समाज को सबल होना बहुत आवश्यक है। हिन्दू समाज सबल हो और सजग हो। केवल सबल होने से भी बात नहीं बनेगी, सजग भी होना चाहिए। मैं आपको 1947 की ही बात बताता हूँ। लाहौर में मुसलमान लीग का हत्या वगैरह का काम तो चल रहा था, 1946 से ही कम कभी अधिक, लेकिन 5 मार्च को एक साथ जब हुआ तो उसके बाद लाहौर में एक बैठक हुई संघ के प्रमुख कार्यकर्ता की। उस बैठक में सभी स्थितियों की चर्चा हुई तो सब लोग बड़े चिंतित थे, कि वहाँ ऐसा हो रहा है। तो सभी कार्यकर्त्ता बड़े जोश में थे, उन्होंने कहा माधवराव जी ऐसे कैसे चलेगा? सब जगह ऐसे हिन्दू को मारा जा रहा है और हमारे पास तो कुछ है ही नहीं और उनके पास सब कुछ है। तो ऐसी स्थिति में हम क्या करें, हम भी मरेंगे और जैसे रावलपिंडी में हुआ है कल को यहाँ लाहौर में भी होगा। हम क्या करेंगे?

माधवराव जी ने सबकी बात सुनी बड़ी शांति से और उसके बाद उन्होंने ये कहा कि ये मत कहो कि हमारे पास कुछ नहीं है, हमारे पास बहुत बड़ी चीज है, और वो है हमारा कैडर।

मधु किश्वरपर हमारे पास लड़ने की तैयारी भी होनी चाहिए ना। 

कृष्णानंद जीउन्होंने कहा कि ये है हमारा कैडर और उसी बैठक में वहीँ बैठे बैठे लाहोर के संघ के कार्यकर्ताओं को संघ के काम से मुक्त कर दिया। जिम्मेवारी से मुक्त कर दिया और वहीँ बैठे बैठे उन्होंने एक एक व्यक्ति को जो विभाग बनाए थे वो दिया। उसके लिए जो पैसा चाहिए था, उसके लिए धनसंचय वाला विभाग अलग था। तो उस बैठक में ही सब तय हो गया और तीन चार दिन में ही वो सारे काम चालू हो गए। और ये सारी स्तिथि अमृतसर लाहौर में ही नहीं पूरे पंजाब में बनी। सारे विभाग सभी स्थानों पर बने। तो देखिये मुख्य बात होती है कैडर बाकी चीजों की कोई समस्या नहीं होती है, तो कौन क्या करना है?  मुख्य बात ये है कि हम समझे कि उस समय भी संघ के स्वयंसेवकों ने गाँव गाँव में जाकर लोगों को कहा तैयार हो जाओ, शस्त्र इकट्ठे करो। हम शस्त्र  देंगे ये नहीं कहा, और हिन्दू समाज को जाग्रत करने की कोशिश की। और उसमें से भी जो व्यक्ति विशेष उनको ठीक लगे उनको व्यक्तिगत रूप से बात करके कहा कि क्या करना है क्या नहीं करना है? तो बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं जो ना तो सार्वजनिक होती हैं और जिनको कथन देना है कथन देते रहे संघ के जितना जरूरी होता है।

मधु किश्वरआजकल संघ के लोग ज्यादा ही कथन देते हैं। आजकल संघ के नेता कुछ ज्यादा ही फालतू कथन देने लगे हैं, जहाँ जरूरत नहीं भी होती है, क्योंकि अखबार में छप जाती है। पहले तो था कि हमें चुपचाप मौन रहकर काम करना है, अब है कि काम करें न करें बोलना जरूर है, और कुछ भी अंट शंट बोलते हैं। अभी हम कुछ टिप्पणियाँ और सवाल ले लेते हैं।

राघव झा: नोवाखली दंगे में क्या किसी सुरवावरदी ने किसी महिला की ब्रैस्ट काटी थी?

मधु किश्वरक्या ऐसा था? सुरवावरदी थे न जो बंगाल के कसाई। सुरवावरदी ने स्वयं किसी महिला की ब्रैस्ट काटी थी, ऐसा कोई वर्णन है? 

राघव झा: तकसीम परस्त का चमचा गाँधी? अब्दुल्ला बड़ा बेटा? 

मधु किश्वर:आप सही कह रहे हैं। मन दुःख रहा है आपका और मेरा भी दुःख रहा है। सबसे बड़ी दुःख की बात होती है कि ये कहानियां मैं अपने परिवार से सुनना नहीं चाहती थी, इतना खून खौल जाता था। ये नहीं पता किया मैंने अभिभावक जब तक थे, कि वो किस कैंप में रहे? क्योंकि सोच कर ही माथा झन्ना जाता था, तो नहीं सुनना मुझे ऐसा। अब मुझे अफ़सोस होता है कि एक एक शब्द मुझे ले लेना चाहिए था अपने सारे रिश्तेदारों का, क्या हुआ उनके साथ? पर हिम्मत ही नहीं जुटा पाती थी कि वो कहानियां सुने और फिर सामान्य जीवन जियें।

राघव झा: गाँधी की बकरी का खर्च 20 रूपए प्रतिदिन होता था। 

मधु किश्वरसही कह रहे हैं। जबकि चवन्नी देते थे कांग्रेस के कार्यकर्ता को, बहुत कम पैसा था अगर वो गाँव में कार्यकर्त्ता बनकर जाता था तो वाकई भुखमरी के रूप में ही उसको जीना पड़ता था। और यहाँ गांधीजी की बकरी भी जा रही है लन्दन। क्या क्या नौटंकी नहीं हुई है और सरोजनी नायडू ने तो कहा ही है, “बापू को गरीबी में रखने के लिए बहुत पैसा है।” बहुत नखरा था और जहाँ भी जाना होता था, नोवाखली की निर्मल बोस की जो गाथा है, जो अंत के दिन थे गाँधी के नोवाखली में, उन्होंने बहुत अच्छा वर्णन किया है. पहले एक एडवांस दल जाती थी कि गाँधी का पानी कैसा होगा? उसकी तैयारी, वो खायेंगे क्या? चाहे वो भले ही खजूर खाने हों पर इतना तामझाम होता था खजूर नाश्ते में खाने हैं। मतलब उनकी सादगी के पीछे बहुत आडम्बर और नौटंकी थी। तो ऐसी सादगी तो हमें सच में नहीं चाहिए। गाँधी के जैसे सादगी, ये नौटंकी, ये महात्मा बनने का ढोंग, सत्य अहिंसा का पुजारी अपने को कहते रहे। पर इतना झूठ, इतना फरेब अपने ही लोगों के साथ किया गाँधी ने, क्या कहें? खैर जो कहानी हमने आज फिर सुनी सागर जी से इनके पास और भी बहुत कुछ है बताने को। मुझे आशा है कि आप सभी को यह उपयोगी लगा होगा। क्योंकि असली अनुभव लेकर आ रहे हैं तो मैं तो बहुत कुछ सीख रही हूँ, और ये भी अच्छा हो रहा है कि हम RSS की भूमिका उन दिनों की उसके बारे में भी जान रहे हैं। जो कि बताने की इजाजत ही नहीं दी कभी कांग्रेस ने, खाली गाली दी इनको।

वे हमेशा उन्हें रक्षात्मक मुद्रा में रखते हैं। हाँ, ये अलग बात है कि आज की RSS क्या ये बहादुरी दिखा सकेगी जैसी बहादुरी का बयान हमें मिल रहा था कृष्णानंद जी की गाथा में। पता नहीं होगा की नहीं होगी ऐसी तैयारी? फिर भी उन्होंने जो किया उसका हमें शुक्रिया होना ही चाहिए। बहुत लोगों की जानें बचायी, बहुत लोगों की सेवा की संघ ने उस समय। और यह कुछ ऐसा है जिसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस की कोई तैयारी नहीं थी। समाज को जुटाने का काम जो SGPC ने किया होगा, संघ ने किया होगा, ऐसे बहुत से प्रमुख नागरिक आगे आए जिन्होंने अपना तन मन धन सौंप दिया लोगों को शरण देने में, भोजन प्राप्त करवाने में। जो भी उस समय जरूरत थी कम से कम समाज उत्तर भारत का तो जुट ही गया। ये दुःख की बात है कि शायद दक्षिण भारत में या देश के अन्य हिस्सों में लोगों को ज्यादा खबर नहीं पहुंची। वो मैं यहां के कमेंट से भी देख रही थी कि दक्षिण भारत के लोगों ने कहा कि हमें तो आज पहली बार पता चल रहा है कि पार्टीशन हुआ कैसे और क्यों? हम तो सोचते थे कि हिन्दू बहुत ही बदमिजाज होंगे, जो उनको उखाड़ कर निकाल दिया मुसलमानों ने पाकिस्तान से। ऐसा भी पाठ पदाया जाता है देश के कई हिस्सों में और दक्षिण भारत तो शायद बिलकुल ही इससे अनभिज्ञ रहा। 

आए दिन नए नए हादसे हो रहे हैं, और ये भी सर तन से जुदा का एक संस्करण है पुरुषों का इसलिए क्योंकि तुम काफिर हो, और स्त्रियों का इसलिए क्योंकि तुम मुसलमानों का हक़ हो। तुम मालेगानिमत हो। तुम पर हमारा हक़ है, जिस पर हमारी नज़र पड़ जाए, जब चाहे हम तुमको ले सकते हैं। अपना बना सकते हैं, अपना सेक्स गुलाम बना सकते हैं। यहाँ कोई शादी नहीं होती है, यहाँ सेक्स गुलामी होती है खासकर जब हिन्दू लड़कियों को लेकर जाया जाता है। ये मालेगानिमत की तरह इस्तेमाल करते हैं हिन्दू लड़कियों को, और अगर जब किसी ने मना किया तो बेरहमी से ये किस तरह जला दिया, ये कैसा रोमांस है? ये कैसा प्यार है कि आप उसी व्यक्ति को जिससे आपको प्यार है, उसको बेरहमी से जिन्दा जला दो?

पर यही प्यार सिखाया गया है इनके मजहब में हम क्या कह सकते हैं? अब हमारी लड़कियाँ दूर रहे इनसे, बेटियां दूर रहे इनसे, और हमें अब समझ आ रहा है कि हिन्दू क्यों डरते हैं ऐसे मोहल्लों में रहने से जहाँ पडोसी मजहबी हों? बहुत खतरे की बात है, अब समझ में आ रहा है कि क्यों बेटियों को मारने की प्रथा हुई हिंदुस्तान के बिलकुल उन्ही प्रान्तों में उन्हीं जिलों में, उन्हीं हिस्सों में जहाँ ये आक्रान्ता आते रहे और फिर अपनी हुकूमत जमा कर बैठ गए। ये बिलकुल सही बात है कि जब जिसकी जिसपर नज़र पड़ती थी उसे उठा लेते थे और लड़कियों को पर्दा प्रथा में धकेलने का काम भी हिन्दुओं को करना पड़ा। चारदिवारी में बेटियाँ रहे, बाहर ना जाएँ, ये सब हमारे समाज की संकट प्रतिक्रियाएँ थी। स्त्रियों को परदे में रखना, बेटी पैदा हुई तो मार ही डालो क्योंकि आक्रान्ताओं से, भेडियों से कैसे बचाएँ अपनी बेटियाँ। ये झेला है सब हमारे समाज ने। जौहर जैसी प्रथाएं कि जल कर मर जाओ, इनके हाथ हमारी लाश भी न पड़े, ये झेला है हमारे समाज ने। और फिर उसी किस्म का दौर हमारे सामने आ खड़ा हुआ है जो पार्टीशन से एक दो साल पहले की स्तिथि रही होगी और हमारी सरकार की तो तैयारी नहीं लगती, क्या समाज तैयार है?

इसका जवाब आपने खुद भी ढूंढ़ना है, केवल हमारे वक्ताओं से, स्पीकर से, विषय विशेषज्ञ से नहीं, आप सबको इस सवाल का जवाब खोजना होगा और सुरक्षा के इंतजाम करने होंगे। सरकार की राह देखते रह गए तो पता नहीं क्या हाल होगा? रिफ्यूजी जैसा मेरा परिवार बनकर आया कि कम से कम कोई जगह थी जाने की, आज के दिन जाएंगे भी कहाँ? कहाँ जाएंगे, इन्होने 2047 तक पूरे देश के इस्लामीकरण का जो मन बना लिया है तो जाएंगे भी कहाँ? कोई जगह भी नहीं है क्योंकि चारों ओर हमारे मिनी पाकिस्तान बन चुके हैं।

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The Girl From Kathua

About the Book:

On January 10, 2018, a little girl allegedly disappeared in Kathua district of Jammu province. Even before her body was recovered a week later, a sinister narrative was launched alleging that the girl was abducted, gang raped and killed by ‘RSS-minded’ Hindus in a Hindu temple. Talib Hussain, a PDP-Hurriyat activist with criminal antecedents led the campaign, in which Patwari Sanji Ram was declared as the ‘mastermind’.

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