क्या अंग्रेज़ी भाषा की दबंग छत्रछाया में भारतीय ज्ञान परम्पराएँ पुनर्जीवित हो सकती हैं ?

उपरोक्त विषय पर दिनांक 31.07.2022 को मधु किश्वर तथा भाजपा प्रवक्ता एवं राज्यसभा सांसद सुधांशु त्रिवेदी के बीच मानुषी यूट्यूब चैनल पर संवाद हुआ था, यह उसी का लिखित रूपांतर है l


मधु किश्वर: सुधांशु त्रिवेदी जी, आपका मानुषी संवाद कार्यक्रम में स्वागत है l  

यह विषय मैंने इसलिए चुना क्योंकि एक तो आप हिंदी और संस्कृत के अच्छे विद्वान् हैं और दूसरा आपकी इस पर सहमती भी थी l चूँकि आपका भारतीय भाषाओं और ज्ञान परंपराओं से विशेष लगाव है, इसलिए इस विषय पर बात करने के लिए आपसे बेहतर कोई अन्य व्यक्ति हो नहीं सकता |

सबसे पहले मेरा सवाल यह है कि आज देश में व्याप्त अंग्रेज़ी भाषा  के वर्चस्व में क्या भारतीय ज्ञान परम्पराएं पुनर्जीवित हो सकती हैं ? क्या आप मानते हैं  कि 1947 के बाद अर्थात आज़ादी एवं देश विभाजन (जिसमें आज़ादी की ख़ुशी तो कम बल्कि बँटवारे का दर्द ज्यादा शामिल है ) के बाद जबकि अंग्रेजों को देश छोड़े हुए 70 वर्षों से भी अधिक समय बीत चुका है बावजूद इसके क्या अंग्रेजियत और ज्यादा नहीं बढ़ती चली गयी ? अगर हाँ तो ऐसा क्यों ?

सुधांशु त्रिवेदी: देखिए यह बात तो सही है कि हमारी स्वतंत्रता के साथ विभाजन का दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय भी लिखा हुआ है जिसकी वजह से  यह तय किया गया है कि 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस मनाया जाएगा ताकि यह हमेशा याद रहे कि देश के साथ क्या हुआ था ? स्वतंत्रता की क्या कीमत चुकानी पड़ी थी ? यह बात सदैव स्मरण रहनी चाहिए ताकि दोबारा ऐसी गलती न हो l जो आपने बात कही तो मुझे याद आता है कि बचपन में हम लोग एक हास्य व्यंग्य रुपी कहावत सुनते थे जिसमें एक पंक्ति आती थी कि:-

“अँगरेज़ बेचारे चले गए भारत को देकर आज़ादी,

लेकिन अभी तलक तुम गयी नहीं चर्चिल दादा की परदादी l

ये ‘चर्चिल दादा की परदादी’ शब्द अंग्रेज़ी भाषा के लिए प्रयोग किया जाता था l स्वतत्रता के बाद यह विचार था की हमारा तंत्र ‘स्व’ से प्रेरित होनी चाहिए | यानि अपनी पहचान पर हमें स्वभिमान का भाव रखना चाहिए | हमारे महापुरुषों ने जैसे लोकमान्य तिलक जी ने पूर्ण स्वराज की बात कही  तो वहीं महात्मा गाँधी जी ने हिन्द स्वराज की बात कही थी | हमारे पास राज्य तो आया पर स्व के तत्व का उसमें अभाव  था l आज स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी हमें इस पर विचार करने की जरुरत है |

अंग्रेजी भाषा का  प्रभाव स्वतंत्रता के बाद कम होने के बजाय उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया l संयोग की बात यह  है कि  भारतीय भाषाएँ जिनका कि आपस में बहन की तरह सम्बन्ध होना चाहिए था, उनके बीच में इर्ष्या और द्वेष का सम्बन्ध  बनता चला गया l और उस इर्ष्या और द्वेष का लाभ उठाते हुए अंग्रेजी एक भाषा के रूप में  पूरे भारत के ऊपर अपना प्रभाव जमाने लगी l जिसका  एक बहुत भारी प्रभाव ऐसा  हुआ कि अभी हमने देखा कि आंध्रप्रदेश में राज्य  सरकार ने निर्णय लिया कि अब वहाँ  बुनियादी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी जाएगी l तेलुगु भाषा की तिलांजलि दे दी एक प्रकार से और अंग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व स्थापित कर दिया l यह एक सोचने की बात है कि समस्त भारतीय भाषाओं का क्या भविष्य में एक भयावह हश्र हो सकता है ? आज स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर इस विषय पर विचार करने की बहुत ज़रूरत है l

मधु किश्वर: आपने अंग्रेज़ी भाषा पर जैसा हास्य व्यंग्य किया कि ‘चर्चिल दादा की परदादी’, ये चंद पंक्तियाँ ही बहुत कुछ कह गईं l मुझे कम से कम दुनिया का कोई दूसरा देश नहीं दिखता जिसने इस तरह अपनी मूल-भाषाओं को तिरस्कृत कर अंग्रेज़ी के बोझ को ऐसे ढोया हो l छोटे से छोटा देश, हमारे उपमहाद्वीप में ही देख लीजिए, बांग्लादेश बंगाली का इस्तेमाल करता है| भूटान की भी शिक्षा भूटानी भाषा में ही होती है l श्रीलंका में भी सिंहली भाषा के साथ हीन भावना को नहीं जोड़ा गया l बाकि चाहें थाईलैंड हो, मलेशिया हो किसी ने भी अपनी भाषा को निम्न समझकर उसे अयोग्यता का पर्याय नहीं बनाया l  हमारी तरह उन्होंने अंग्रेज़ी को श्रेष्ठता के भाव के साथ अपनी अवचेतना में इतना गहरा नहीं बैठाया l दूसरी तरफ यूरोप का कोई भी देश, छोटा हो या बड़ा हो पर कोई भी ऐसा नहीं जिसने अंग्रेजी का बोलबाला स्वीकार किया l केवल उन्ही देशों में  इसका वर्चस्व बढ़ा जिनके पास अपनी लिपि नहीं थी जैसे कि कई अफ़्रीकी देश हैं l

हमारी भाषाओं का इतिहास तो हज़ारों वर्ष पुराना है आज तक इस विषय पर ठीक से अध्ययन  नहीं हुआ l संस्कृत हो, तमिल हो, तेलुगु हो या जिस भी भाषा को ले लीजिए, ये सभी हज़ारों साल पुरानी हैं l और संस्कृत को तो हम जानते ही हैं सभी भाषाओं की जननी कहा जाता है l अंग्रेजी भाषा तो संस्कृत के सामने कल की ही भाषा है l फ़िर ऐसा आख़िर कैसे हुआ कि यह मानसिकता इतनी प्रगाढ़ हो गयी कि अंग्रेज़ी भाषा ही श्रेष्ठ है बाकी सभी भाषाएँ इसकी तुलना में निम्न दर्ज़े की हैं ? एक मात्र इसी भाषा में पारंगत होना समाज में ज्ञानी और अभिजात वर्ग से होने का पर्याय बन गया l इसमें नेहरु जी की भूमिका तो है ही साथ ही साथ इसमें वामपंथियों की बड़ी भूमिका है l एक और भी दोषी है जिसकी बात बाद में करेंगे  पर इस पर  विरोध क्यों नहीं हुआ ? यह मुझे समझ नहीं आता l

सुधांशु त्रिवेदी: देखिए आपने जो प्रश्न उठाया इसका उत्तर मैं दो पक्षों में देना चाहता हूँ l पहला तो यह जो मैकाले वाली मानसिकता है कि पढ़ा-लिखा व्यक्ति वही होता है जिसको अंग्रेजी आती है इस सन्दर्भ में l यहाँ मैं अपना एक अनुभव साझा करना चाहता हूँ कि मैंने अपनी बारहवीं की परीक्षा गणित एवं विज्ञान विषयों में उत्तीर्ण की और उसके बाद आभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) में दाखिले की परीक्षा दी l उन दिनों वहाँ यह नियम था कि भौतिकी, गणित  एवं रसायन शास्त्र की उत्तर पुस्तिका तभी जाँची जाएंगी जबकि अंग्रेजी में न्यूनतम योग्य अंक हासिल किये हों l मतलब इंजीनियरिंग करने के लिए पहले अंग्रेजी का ज्ञान होना अनिवार्य है l जब मैंने वह परीक्षा उत्तीर्ण करके दाखिला लिया तो देखा कि हर साल दो-तीन बच केवल इसलिए इसे बीच में या साल भर बाद छोड़ कर  चले जाते थे क्योंकि सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती थी l सभी किताबें अंग्रेजी में, कक्षा में व्याख्यान से लेकर प्रश्न-उत्तर सब अंग्रेजी में, तो वे घबराकर छोड़ देते थे l मुझे याद है कि एक बार हमारे एक शिक्षक ने यह बात कही थी मज़ाक में कि “लोगों को बहुत बड़ी गलतफ़हमी है कि जो अंग्रेजी जानता है वही विद्वान् होता है l अगर ऐसा होता तो इंग्लैंड में कोई छोटा-मोटा काम करने वाला व्यक्ति भी हमारे यहाँ के गैर-अंग्रेजी विद्वानों से बड़ा विद्वान् हो गया होता लेकिन ऐसा नहीं है” l मुझे याद है जब मैं बच्चा था, ये आज से करीब 30 साल पहले की बात है तब हिंदी दिवस के उपलक्ष में एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मैंने सुनी थीं जो कि कुछ इस प्रकार हैं:-

अंग्रेजी में बातें कर हम फूले नहीं समाते हैं,

पर इतने निर्लज कि फिर भी हिंदी दिवस मनाते हैं l

बीबी बच्चों से भी करते अंग्रेजी में खिट-पिट,

अगर कोई हिंदी बोले तो उससे करते खिट-खिट,

अंग्रेजी में बातें कर हम फूले नहीं समाते हैं,

पर इतने निर्लज कि फिर भी हिंदी दिवस मनाते है l

रूस, चीन, जापान, जर्मनी में न पढ़ाई जाती,

इजराइल में नहीं किसी को अंग्रेजी है आती,

फिर भी वो आगे बढ़ते और हम पीछे रह जाते हैं,

पर इतने निर्लज कि फिर भी हिंदी दिवस मनाते हैं l

और जो आपने कहा कि दुनिया के बाकी देशों को हम देखें कि किस देश ने प्रगति की और कौन पीछे रह गया ? हम किस मानसिकता से ग्रस्त हो गए ? तो यही कहना चाहूंगा कि हमनें सोंचा तो यह था कि हम व्यवसाय के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल करेंगे पर आज स्थिति यह हो गई है कि घर-परिवार में भी सब अंग्रेजी ही बोल रहे हैं l माता-पिता, बच्चे सब एक दूसरे से अंग्रेज़ी में बात करने लगे l मुझे अमेरिका में एक व्यक्ति ने कहा कि हमने आज तक दुनिया में दो जापानियों को गैर-जापानी भाषा में बात करते हुए नहीं देखा, दो चीनी, ज़र्मन, फ्रांसीसियों या अन्य भी किसी एक देश के दो लोगों को अलग भाषा में बात करते हुए नहीं देखा परन्तु दो भारतीयों को हमने हमेशा अंग्रेज़ी में ही बात करते हुए देखा है l अगर एक दक्षिण भारत हो और दूसरा उत्तर भारत का आदमी हो तो चलो समझा भी जा सकता है l  दिल्ली में ही रहने वाले हिंदी भाषी लोग एक-दूसरे से अंग्रेज़ी में बात करते हैं l यह हाल है हमारा l

दुनिया का कोई एक विकसित देश बताइये जिसने अपनी भाषा को अपनाये बिना विकास कर लिया हो ? यह एक चुनौती है भारत के लिए ! यहाँ मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि हमारे मन में किसी भी भाषा के प्रति पूर्वाग्रह नहीं है लेकिन मैं यह कहना चाहूंगा कि किसी भी भाषा के तीन आधार होते हैं जिस कारण से उसे हम अपनाते हैं l पहला, उस भाषा का प्रभाव l दूसरा, उस भाषा की वैज्ञानिकता l और तीसरा, उस भाषा से जुड़ी संस्कृति क्योंकि भाषा अपने आप में महज शब्द नहीं बल्कि विचारों का स्त्रोत होती  है l

उदाहरण के तौर पर, आज कल युवा वर्ग बहुत प्यार-मोहब्बत की बात करता है, एक मुहावरा (phrase) है अंग्रेज़ी में कि  ‘everything is fair in love and war’ l विनम्रता से पूछता हूं, संस्कृत या किसी भारतीय भाषा में क्या ऐसी कोई कहावत है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ उचित है ? नहीं है ! अगर आप इसका बोलचाल की हिंदी में अनुवाद भी करते हैं तो आप कहते हैं की ‘इश्क़ और जंग में सब कुछ जायज़ है’ l ये असल में फ़ारसी भाषा के शब्द हैं, जो उर्दू जुबां में अंगीकार कर लिये गए l यानि दोनों कहावतों में से कोई भी मूल भारतीय कहावत नहीं है क्योंकि हमारी भारतीय विचार परम्परा में युद्ध और इश्क़ में सब कुछ जायज़ नहीं है l युद्ध परिस्थिति विशेष में एक धर्म है जबकि प्रेम को त्याग अथवा सम्पर्पण के रूप में परिभाषित किया गया है l इसलिए जब हम अंग्रेजी भाषा अंगीकार करते हैं तो उसी भाव के साथ यह कहावत हमारी जुबां पर चढ़ जाती है l और जब यह बात मन में बैठ जाती है  कि  प्रेम और युद्ध में हर बात की अनुमति है तब तो हम हर उस बुराई को प्रमाण दे देते हैं जो इसके नाम पर की जाती है l यह केवल एक उदाहरण दिया यह बताने के लिए कि  भाषा आपके मन के विचारों तक जाकर हमारे अवचेतन मस्तिष्क को प्रभावित करने लगती है और हमें पता भी नहीं लगता है l इसलिए भाषा सिर्फ विकास और बुद्धि की बात नहीं है, यह भी देखिए  कि  भाषा आपकी  बुद्धि के साथ-साथ आपके मन को कहाँ तक जा कर प्रभावित करती है ?

दूसरा, पूरी दुनिया को एक ही परिवार मानकर शांति, सहयोग और प्रेम स्थापित करने वाला ‘वसुदैव कुटुम्बकम’ जैसा उत्कृष्ट सिद्धान्त सिर्फ संस्कृत और भारतीय भाषाओं में ही मिलता है, अंग्रेजी या अन्य किसी भी दूसरी भाषा में नहीं l अंग्रेज़ी में क्या मिलेगा? ‘The world is a global village or a global market’ अथवा दुनिया को एक वैश्विक बाज़ार या ज़्यादा से ज़्यादा एक वैश्विक गाँव बता दिया l वहीं भारतीय भाषा में विश्व एक परिवार है और परिवार में परस्पर स्नेह होता है जबकि बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बल्कि कहें तो गला काट प्रतिस्पर्धा होती है l परिवार में त्याग से जुड़ा हुआ परस्पर स्नेह होता है l जमीन आसमान का अंतर हो जाता है, शब्दों के पीछे छिपा विचार एवं भाव ही बदल जाता है भाषा के बदलने पर l अफ़सोस की बात यह  है कि हम इन बातों की गहराई को समझे बगैर अन्धानुकरण किये जा रहे हैं l तक़रीबन 185 साल पहले मैकाले ने जो स्वप्न देखा था, वह आज भारत की आज़ादी के 75 वर्षों के बाद साकार सा होता दिखता है l आज़ादी से पहले हमारे विचार में, व्यवहार में, और भाषा में उतना विदेशी प्रभाव नहीं आया था जितना कि आज आ गया है l यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा, महात्मा गाँधी ने 1909 में  जो ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक लिखी थी l वहाँ उन्होंने यह लिखा है कि स्वराज का अर्थ यह है कि हमारे अंदर ‘स्व’ के तत्व का प्रगाढ़ होना अर्थात अपनी पहचान पर; अपनी भाषा, संस्कृति, साहित्य, सभ्यता हर एक चीज के प्रति आस्था, आदरभाव एवं आत्मसम्मान l हम ब्रिटेन से मुक्ति तो चाहेंगे लेकिन ब्रिटेन की नक़ल भी चाहेंगे तो यह स्वराज नहीं होगा l परन्तु आज अगर हम देखें तो हमारा समाज जिस तरफ जा रहा है, वह स्थिति कुछ ऐसी है:-

वेष-वाणी तत्त्व-दर्शन,

दूसरों का यह सभी ले l

विकृतियों को ग्रहण करते,

निज प्रकृति को आज भूले l

दूसरों की यह नक़ल है,

अस्मिता क्या मान लें हम l

हो गए हैं स्वप्न सब साकार कैसे मान लें हम,

टल गया सर से व्यथा का भार कैसे मान लें हम ll

आज़ादी की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ मानते हुए हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि क्या हुआ था और हम किस तरफ जा रहे हैं ? इसीलिए मैंने दुनिया और  वैयक्तिक सन्दर्भ में दो उदाहरणों सहित भाषा के प्रभाव पर यह विचार रखे l हम समाज और विचार को किस दिशा में ले जाएंगे ? यह सोंचने की जरुरत है l भाषा उसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है l

मधु किश्वर: मैं आपके इन विचारों से दो राय तो हो ही नहीं सकती l परन्तु मैं इसमें दो सवाल और जोड़ना चाहूंगी l

1. किसी ज़माने में हमें लगता था जनसंघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, समाजवादी पार्टी और जो अन्य लोहियावादी दल थे वे सब हिंदी के लिए लड़ती हैं और उन्होंने इसके लिए कई आन्दोलन भी किए परन्तु आज इन सब पार्टियों और भाजपा के भी घोषणापत्र से यह बात गायब है कि हमारी राष्ट्र-भाषा क्या होनी चाहिए? अंग्रेजी को अपनी जगह पर एक विदेशी भाषा के रूप में पढ़ाने पर कोई आपत्ति नहीं जैसे कि बाकी देशों में पढ़ाया जाता है l चीन के लोग भी अंग्रेजी पढ़ते हैं विदेशियों से व्यवहार के लिए l लेकिन जैसा आपने ही कहा कि अब तो छोटे-छोटे बच्चों से भी अंग्रेजी में ही बात करते हैं और बच्चों से तो क्या अब तो कुत्तों से भी अंग्रेजी में बात करते हैं l अब तो कोई हिंदी देशी नाम भी नहीं रखता कुत्तों का, उनका नाम भी अंग्रेजी l और फिर उन कुत्तों से भी बातें अंग्रेजी में l अन्य दलों की तो बात ही छोड़ दो लेकिन आपकी पार्टी क्यों इसके प्रति इतनी विमुख हो गई है जो कि भारतीय संस्कृति की हितैषी कही जाती है ?

2. अभी संस्कृत भाषा को कितना अपमानित किया गया अमेरिकन अध्येता अथवा प्राध्यापकों (Scholars / Professors) द्वारा l कुछ ने तो इसको एक मृत भाषा (dead language), अत्याचारी वर्ग की भाषा (language of atrocities), क्या क्या नहीं कहा ? संस्कृत का इतना अपमान हुआ, इसे इतना बदनाम किया गया फ़िर भी भाजपा या आरएसएस (RSS) द्वारा क्यों नहीं वहाँ उन अमरीकी प्रोफेसरों पर हमारी पुरातन भाषा का अपयश फ़ैलाने के खिलाफ वाद दायर किया गया ? यह मैं जानना चाहती हूं l जबकि देश की एक आम नागरिक होते हुए भी मुझे इतना कष्ट हुआ कि अगर मेरे पास संसाधन होते तो मैं यह कार्य अवश्य करती l

सुधांशु त्रिवेदी: आपके दो प्रश्नों के दो उत्तर हैं l एक प्रश्न है कि भारत में क्यों राष्ट्र भाषा या कहें तो हिंदी का विषय पीछे होता चला गया और दूसरा विदेश में संस्कृत के अपमान का मुद्दा l मैंने एक उदाहरण तो अभी दिया ही था आन्ध्र प्रदेश का कि कैसे अब बुनियादी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाकर तेलुगु भाषा को त्यागने का आधार तैयार किया जा रहा है l आगे बताता हूँ कि भारतीय भाषाओँ में जो विभेद हुआ और फ़िर जो यह स्थिति बनी कि क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर भाषओं में सामंजस्य खोजने के बजाय विभाजन की राजनीति कर लोगों को बाँटने के प्रति ही सत्ता के लोलुपों का आग्रह अधिक रहा l उसका क्या प्रभाव हुआ ? एक उदाहरण से समझते हैं, साठ के दशक में तमिलनाडु के अंदर बड़ा ही उग्र हिंदी-विरोधी आन्दोलन हुआ l आज इनसे ईमानदारी से पूछा जाए कि 60 के दशक में कितने प्रतिशत बच्चे तमिल माध्यम  से पढाई करते थे और आज कितने प्रतिशत बच्चे तमिल माध्यम से पढ़ते हैं ? ज़मीन आसमान का फर्क है l मेरे विचार में अगर उस ज़माने में 90 प्रतिशत लोग पढ़ते होंगे तो आज यह आँकड़ा शायद 25-30 प्रतिशत ही होगा l जिन्होंने भाषायी अस्मिता के नाम पर लड़ाई को प्रोत्साहित किया l यदि विनम्रता से पूछ लिया जाए कि उनमें से कितने नेताओं ने अपने बच्चों को तमिल माध्यम स्कूलों में पढ़ाया है ? तो मेरे विचार में उनके सामने बहुत बड़ा संकट उत्पन्न हो जाएगा l आपकी भाषा और संस्कृति के लोग 60 वर्षों में 90 प्रतिशत से 30 प्रतिशत पर  आ गए तो अगले 60 वर्षों में तो समाप्त हो जाएगी यह भाषा ? सभी भारतीय भाषाओं के सामने वह चुनौती होगी l किसी भी भाषा के लोग हों, सब अपने बच्चों को सीधे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने लगे हैं l  इस बड़ी चुनौती का एक बड़ा कारण जो बना वह है कि भाषा को क्षेत्रीय राजनीति का एक बहुत बड़ा मुद्दा बना लिया गया और इसमें अंतर निहित द्वन्द यह है कि जिन नेताओं ने इसे मुद्दा बनाया उन्होंने कभी अपने व्यक्तिगत आचरण में भाषण देने के अलावा अपनी उस भाषा को नहीं अपनाया l सबके बच्चे विदेशों में पढ़े और अभी भी पढ़ रहे होंगे या फ़िर दिल्ली, मुंबई या बैंगलोर जैसे शहरों में जाकर पढ़ने लगे और अंग्रेजी को अंगीकृत कर अपनी ज़ुबानी भाषा को त्याग दिया l आज अगर इनसे पूँछा जाए कि इन्होंने अपनी मातृभाषा के कितने ग्रंथों को पढ़ा है ? जैसे तमिल भाषा में ‘तोल्काप्पियम’ है जो कि सबसे बड़ा ग्रन्थ है, कितने तमिल नेताओं ने उसको पढ़ा है ? उसमें कितने अध्याय हैं? दस में नौ लोगों को नहीं पता होगा परन्तु इसे लेकर किस प्रकार से बवाल मचा दिया गया था ? इतिहास साक्षी है l

हमारी एक विविधता है l इस विविधता को राजनीतिक स्वार्थों के लिए विभेद बनाकर जो संघर्ष शुरू हुआ उसी कारण से यह समस्या शुरू हुई l मैं एक उदाहरण देना चाहता हूं यह बताने के लिए कि कहाँ हम समाधान खोजते हैं और कहाँ हम विवाद खोजते हैं उत्तर हो या दक्षिण किसी भी जगह l श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी गुरमुखी लिपि में लिखी गई, उसका अंतिम अंग का अंतिम छंद क्या है ? वह है:-

 राम नाम सिमरन करो,

जाके सम नहीं कोय l  

सिमरत ही संकट मिटे,

दरस दिखावे सोए ll

यह हिंदी में है और विशिष्ठ रूप से कहूँ तो अवधि में है l यह है जोड़ने का काम l मराठी में बहुत ही प्रख्यात नाटक है ‘जाणता राजा’ जो कि छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर आधारित है और पूरे महाराष्ट्र में दिखाया जाता है l जाणता राजा का जब अंत होता है तो कविराज भूषण का छंद सुनाया जाता है वो भी अवधि भाषा में लिखा हुआ है l ये हैं देश को जोड़ने के उदाहरण l  मगर जोड़ने के बजाए तोड़ने का काम कैसे किया जाता है, मैं अपना व्यक्तिगत अनुभव बताता हूँ l एक बार भाजपा कार्यालय में पत्रकार सम्मलेन (Press conference) के दौरान मैंने ‘वितंडावाद’ शब्द का प्रयोग किया तो हमारे बहुत से अंग्रेजी चैनल और अख़बार के पत्रकार थे उन्हें यह शब्द समझ नहीं आया l उन्होंने मुझसे पूँछा कि वितंडावाद शब्द का अर्थ क्या होता है ? जबकि मुझे यह जानकारी थी कि वहाँ जो दक्षिण भारत के पत्रकार बैठे हैं बल्कि उन्होंने ही बताया था कि तेलुगु और तमिल में भी वितंडवाद शब्द का उसी सन्दर्भ में उपयोग होता है जैसा कि  हिंदी में l फ़िर भी ऐसी अनभिज्ञता प्रदर्शित की जा रही थी कि मानो उन्हें इस शब्द का ज्ञान ही न हो l शब्द और उसके भाव से परिचित होते हुए भी केवल इसलिए अलगाव दिखाना क्योंकि वह हिंदी भाषा में भी उपयोग होता है, इसे जोड़ने की प्रवृत्ति कहा जाएगा या तोड़ने की ?

अब मैं बताना चाहूंगा कि भाजपा ने क्या किया ? इसी पार्टी के नेता स्वर्गीय श्री अटल विहारी वाजपेयी जी ऐसे पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने 1977-78 में संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर हिंदी में भाषण दिया था | फिर प्रधानमंत्री के रूप में हिंदी में ही भाषण दिए l अब हम देखते हैं कि हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर जाकर हिंदी में ही बोलते हैं, बल्कि जो लोग सोंचते थे कि विदेश में जाकर अंग्रेज़ी ही बोली जाती है और जो पूर्वकाल की स्मृतियाँ उनके दिमागों में थीं, आज जब मोदी जी को वहाँ हिंदी में बोलता देखते हैं तो कहीं न कहीं उलझन में पड़ जाते हैं l और यह अधिक महत्वपूर्ण क्यों हो जाता है ? क्योंकि अटल जी तो हिंदी भाषी क्षेत्र से थे, उनकी मात्रभाषा थी हिंदी लेकिन मोदी जी की तो यह मात्रभाषा भी नहीं है l बावजूद इसके हर जगह हिंदी बोलते हैं l तो यह एक प्रयास है जनता के मानस पर स्व-तत्व का प्रभाव डालने का और एक तथ्य बताना चाहता हूँ भाषाई वर्चस्व को लेकर l विभाजनकारी, विभेदकारी नीति अपनी जगह है परन्तु ऐसे लोगों से यह पूँछा जाना चाहिए कि भारत की राजभाषा या कहें तो लोकभाषा (Lingua franca) की नींव रखने वाले कौन थे ? महात्मा गाँधी जी गुजराती भाषी, लोकमान्य तिलक जी मराठी भाषी, हिंदी में ग्रन्थ लिखने वाले पहले गुजराती के. एम. मुंशी जी, श्यामा प्रसाद मुख़र्जी जी बंगाली भाषी, एम. गोपालस्वामी अयंगर जी तमिल भाषी यानी सब तरफ से एक ही विचार था और दुर्भाग्य से विरोध करने वाले कौन थे पंडित जवाहर लाल नेहरु जी ! तो राजनीति वहाँ से शुरू होती है l

मधु किश्वर: मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण हमारी हर भारतीय भाषा के मूल संस्कार (Core values) तो एक ही हैं और शब्दावली में भी समानताएँ पायी जाती हैं क्योंकि लगभग सभी का उद्गम संस्कृत से ही हुआ है l इसीलिए एक-दूसरे की बातें समझना भी आसान होता है बल्कि हमसे पुरानी पीढ़ियों को हम देखते हैं विशेषतः कि राज्यों की सीमाओं के आसपास वाले क्षेत्रों में तो लोग तीन-तीन, चार-चार, यहाँ तक कि पाँच-पाँच भाषाएँ तक बड़ी आसानी से बोल लेते  हैं चाहें विद्यालयों-महाविद्यालयों में भी न गए हों और उनके  संस्कार भी सामान हैं l

अभी आपने बात कही हिंदी विरोधी मनोभाव की जो दक्षिण से, विशेषकर तमिलनाडू से बहुत प्रखर रूप में उभरा और द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (DMK) पार्टी जो बनी उसने इसका भलीभाँति राजनीतिक इस्तेमाल किया l मैं यहाँ कुछ और भी जोड़ना चाहती हूँ हालाँकि आपके लिए यह बाध्यता नहीं कि आप मेरी हर बात पर टिप्पणी करें क्योंकि  राजनीतिक दल से होने के नाते आपके लिए पार्टी अनुशासन की सीमाएँ होंगी l  मुझे ऐसा लगता है कि द्रमुक पार्टी के नेतृत्व में वह हिंदी-विरोधी आन्दोलन पूरी तरह से ईसाई प्रचारकों अथवा प्रचारक संस्थाओं (Missionaries) द्वारा नियोजित, प्रायोजित एवं संचालित था उसी वक़्त जब अगर भारत के विभाजन के बाद इन मिशनरियों पर रोक लगा दी गयी होती जो कि चारों तरफ़ फैले संजाल की वजह से मैकाले शिक्षा पद्धति के प्रसार का सबसे बड़ा माध्यम बनी या इन्हें सबको वापस भेज दिया गया होता यह कहकर कि भैया बहुत हो गयी आपके द्वारा हमारी सेवा और बहुत बन लिए हम आपके द्वारा सभ्य, अब कृपया यहाँ से प्रस्थान कीजिए तो आज देश की तस्वीर कुछ और ही होती और यह जो द्रमुक जैसे दलों के हिंदी-विरोधी आन्दोलन थे जो दरअसल अंग्रेज़ी-समर्थक अथवा मैकाले-शिक्षा समर्थक ही थे, इन सबकी हवा निकल जाती l लेकिन नहीं इन्हें तो उससे एक दम उलट इतनी सुविधाएं दी गईं कि ये आज यहाँ सबसे ज्यादा और सबसे महंगी ज़मीनों के मालिक हैं l इनके वर्चस्व को और मजबूती प्रदान कर दी गयी l आज देखें तो शिक्षा में इन्हीं का बोलबाला है l इन मिशनरी या इन्हीं से प्रेरित होकर खुलने वाले अन्य अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ना आज अभिजात्यता और प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है l हालत यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों के प्रधान क्या, वहाँ के अधिकारीगण क्या, सब यही चाहते हैं कि हमारे यहाँ एक कॉन्वेंट अथवा मिशनरी स्कूल आ जाए तो हमारे बच्चे भी अंग्रेजी शिक्षा पा जाएंगे l यहाँ अच्छी शिक्षा का एक मात्र मतलब हो गया है अंग्रेजी शिक्षा l मेरा तो कहना यही है कि अगर यह सब उसी समय रोक दिया गया होता तो यह हिंदी-विरोधी मनोभाव नहीं बनता जो हम देखते हैं l यह सब इन मिशनरियों का ही किया धरा है, क्या आप इससे सहमत हैं ?

 सुधांशु त्रिवेदी: मैं यह तो नहीं कहना चाहूंगा कि जो द्रमुक या उस आन्दोलन से जुड़े अन्य नेता थे वे सब के सब किसी षडयंत्र के तहत यह काम कर रहे थे मगर हाँ मैं यह जरुर कहना चाहूँगा कि वे एक बहुत बड़े षडयंत्र के शिकार हो रहे थे जिसे वे लोग समझ ही नहीं पाए l उन्हें ये लगा कि वे अपनी पहचान की बात कर रहे हैं और जबकि वे एक बड़े षड़यंत्र का शिकार थे l मैं तमिलनाडु का ही उदाहरण देना चाहूँगा | अगर किसी से पूछिए, और तो और डीएमके के ही किसी व्यक्ति से पूँछ लीजिए कि आज हम 2022 में बैठे हैं, आज से 200 साल पहले 1822 में मद्रास प्रेसिडेंसी में साक्षरता दर क्या थी ? नहीं पता होगा किसी को !

थॉमस मुनरो जो कि उस समय मद्रास प्रेसिडेंसी का गवर्नर था उसकी एक विस्तृत रिपोर्ट है l  यह सन 1800 के आस-पास की बात है, जो आज का लगभग पूरा दक्षिण भारत है यह उस समय मद्रास प्रेसिडेंसी द्वारा ही नियंत्रित होता था l उस दस्तावेज़ के हिसाब से इसकी आबादी 1 करोड़ 26 लाख के आस-पास थी और उस समय इंग्लैंड की कुल आबादी लगभग एक करोड़ के आस-पास थी यानी पूरे इंग्लैंड की आबादी लगभग मद्रास प्रेसीडेंसी के बराबर थी l यह रिपोर्ट ही बता रही है कि उस समय की मद्रास प्रेसीडेंसी में जो विद्यालयों की संख्या थी वह उस समय के इंग्लैंड के स्कूलों से दोगुनी है और दोगुनी भी भला  कैसे ? जबकि हमारे यहाँ जो गुरुकुल थे उनको तो उन्होंने विद्यालय ही नहीं माना l उन्होंने कहा ये तो गलत तरह के स्कूल हैं जिनमें एक ही शिक्षक के साथ आठ-दस बच्चे रहते हैं और वो एक साल तक अध्ययन ही करते रहते हैं l इनमें तो धार्मिक शिक्षा दी जाती है इसलिए इन्हें स्कूल नहीं माना जा सकता है l  हम स्कूल केवल उसको मानते हैं जिसमें सामाजिक विज्ञानं एवं सामान्य ज्ञान से सम्बंधित शिक्षा दी जाती है | जबकि अपने वहाँ यही लोग गिरिजाघरों में होने वाली रविवार की प्रार्थना के बाद दो घंटे की सभा को भी स्कूल मानते थे l इस ससके बावजूद भी मद्रास प्रेसीडेंसी में स्कूलों की संख्या इंग्लैंड से दोगुनी थी | और अगर आप चेंगलपट्टू जिले की 3 अप्रैल, 1823 की रिपोर्ट  देखें जो वहाँ के जिला कलेक्टर ने मद्रास प्रेसिडेंसी के जिला राजस्व मंडल के अध्यक्ष को भेजी है तो उसमें लिखा है कि हमारी तालुका में 561 गाँव हैं एवं 561 ही स्कूल हैं l सभी विद्यालयों में छात्रों की संख्या कुल मिलाकर 6900 दी गयी है और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उसमें लगभग 4,900 विद्यार्थी अनुसूचित वर्ग से थे l

मधु किश्वर: पर उस समय तो अनुसूचित जाति जैसा कोई शब्द ही नहीं था , यह तो अंग्रेजों ने ही बनाया |

सुधांशु त्रिवेदी: दरअसल वहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र, वैश्य शब्दावली का प्रयोग किया है तो वहाँ जो शुद्र संख्या लिखी है वह लगभग 4900 है l महत्वपूर्ण बात यह है कि साक्षरता दर 90 प्रतिशत से भी अधिक है और यह कोई ऐसे ही हवाई बात नहीं है बल्कि ब्रिटेन की संसद के निचले सदन (house of commons) में जमा दस्तावेज में दर्ज़ है l यह दस्तावेज़ सभी ब्रितानी कलेक्टरों का संगृहीत दस्तावेज़ है जो तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ने ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में जमा किया l मगर इसके बावजूद भी हमें तो यही बताया गया कि हम तो साहब अनपढ़ थे और अंग्रेजों ने आकर हमें पढ़ाना शुरू किया l

अब कोई यह भी प्रश्न उठा सकता है कि जब हमारी साक्षरता दर इतनी अधिक थी तो फ़िर हम इतना नीचे कैसे चले गए ? ये सब 1800 से लेकर 1812, 1815 और 1824 के आंकड़े थे l इसके बाद अंग्रेजों द्वारा कैसा षड़यंत्र किया गया एक उदाहरण से समझते हैं l केवल उदाहरण के लिए कल्पना कीजिये अगर आज भारत में किसी तालिबान जैसे संगठन का कब्ज़ा हो गया तो वह क्या कर देगा कि हिंदी और अंग्रेज़ी पढ़ा-लिखा व्यक्ति अब साक्षर नहीं माना जाएगा l केवल अरबी-फ़ारसी पढ़ा-लिखा व्यक्ति ही साक्षर माना जाएगा, तब क्या होगा ? अचानक से हमारी साक्षरता दर शून्य पर आ जाएगी l चलिए कुछ यह भी कहेंगे कि हम भी अपने स्कूलों में अब अरबी-फ़ारसी पढ़ाना शुरू कर देंगे l तो वह क्या कहेगा ? नहीं, सभी स्कूलों की मान्यता अब रद्द की जाती है ! अब हम जो मदरसे खोलेंगे, उनमें ही दाखिला लेना पड़ेगा तभी आपको साक्षर होने की मान्यता मिलेगीl

1837 में यही हुआ l हमारी सारी शिक्षा का माध्यम संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाएँ थीं l यह शिक्षा देने वाले सभी विद्यालयों की मान्यता समाप्तl  अब सिर्फ अंग्रेजी में ही पढ़ा-लिखा व्यक्ति साक्षर माना जाता था l मतलब जो मैकाले विचारधारा के तहत स्कूल खुले और जो उनसे पढ़कर निकले, केवल वे ही पढ़े-लिखे माने जाने लगे और जो बाकि गुरुकुल शिक्षा पद्धति से, संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षित लोग थे उन्हें अनपढ़ की श्रेणी में रख दिया गया l मधु जी, मैं आपको एक और बात बताना चाहता हूं, शायद आपको तो पता ही होगा कि महात्मा गाँधी जब 1931 में गोलमेज़ सम्मेलन (Round Table conference) में गए थे तब चैटम हाउस (Chatham house) में रॉयल लंदन सोसाइटी ने एक व्याख्यान दिया था, उसमें इस बात का उल्लेख किया था की सौ साल पहले यानी 1930 से सौ साल पहले 1830 के आस-पास भारत की शिक्षा व्यवस्था एक शानदार वृक्ष थी “It was a beautiful tree” l जिसे अंग्रेजों ने जड़ से खोद कर खोखला कर दिया l मगर अफ़सोस है कि आज़ादी के बाद जो यह मैकाले और मार्क्स की विचारधारा का प्रवाह आया इसने हमारे अंदर ‘स्व’ के प्रति सम्पूर्ण गौरव का भाव पैदा होने ही नहीं दिया l  

मैं एक शब्द हिंदी में प्रयोग करूँगा कि मैकाले के मानस पुत्रों और मार्क्सवाद के मानसिक रोगियों ने हमारे दिमागों में वह मनोरोग भर दिया कि हम अपनी ही पुस्तकें खोल कर पढ़ने को तैयार नहीं थे l हमने अपने तथ्यात्मक आंकड़ों को भी नहीं देखा और तमिलनाडु के नेतागणों से मैं कहना चाहूंगा कि लंदन स्थित ब्रिटिश अभिलेखागार में संरक्षित दो सौ साल पहले के मद्रास प्रेसिडेंसी के आंकड़े देख लें l कितना शानदार था आपका अतीत मगर इसके बावजूद आप जिस प्रकार से उनकी योजना से ग्रसित हो गए l यह जो विविधता (diversity) के बजाय विभाजकता (divisity) देखी जाने लगी तो इसमें बहुत बड़ी भूमिका अंगीकृत अंग्रेज़ी भाषा की और उससे जुड़ी संस्कृति की भी रही है l

मधु किश्वर: मुझे आपके विचार सुनकर ऐसा लगता है कि अगर मौजूदा सत्ताधारी पार्टी में कोई व्यक्ति वास्तव में शिक्षा मंत्री पद पर बैठने की योग्यता रखता है तो वह आप हैं, कारण आप कम से कम मुद्दों को तो ठीक से समझते हैं l सब कुछ जानते हुए भी कुछ न कर पाना कितनी बड़ी त्रासदी है l जो आपने उदाहरण दिया द्रमुक की राजनीति का, पेरियार हो या अन्य भी, कैसे षडयंत्र का शिकार हुए या उसके हिस्सेदार बने वह तो इतिहास एक दिन बताएगा ही l आज तो स्थिति यह है कि हमें खुल के उन सवालों पर, उस इतिहास पर बेझिझक निडरता के साथ बात तक करने की भी इजाजत नहीं है l पेरियार को हमें मुक्तिदाता (liberator), जाति-विरोधी सुधारक कहना ही पड़ता है l आज सत्ताधारी दल में आप जैसे लोग हैं और ऐसे गहन चिंतन वाले लोग एक समय कांग्रेस पार्टी में भी थे, आपने कुछ के नाम भी लिये l वे सभी इस देश की भाषाओं को ही अग्रसर करना चाहते थे l लेकिन आज जो स्थिति है, कैसे विश्वगुरु बनेगा भारत ? अगर हम ऐसे ही अपनी भाषाओं को इतनी हीन भावना के साथ तिरस्कृत करते रहेंगे l आज लोगों से बात करो तो पता चलता है कि ज़मीनी वास्तविकता यह है कि अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अपनी मातृभाषाओं में पढ़े-लिखे व्यक्ति को एक चपरासी की नौकरी के अलावा इस देश में कोई दूसरी नौकरी नहीं मिलती l निजी क्षेत्र की नौकरियों में तो बिना अंग्रेजी के नौकरी पाना और भी मुश्किल है जो कि यहाँ अधिकतर लोगों की आजीविका का माध्यम है l मैंने अपनी परास्नातक अंग्रेज़ी विषय में उत्तीर्ण की और फ़िर आगे इतिहास विषय में भी उपाधि (Degree) हासिल की l करीब 15-16 साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाई I मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ कि हम भाषाई रूप से अक्षम भीड़ अपने संस्थानों में तैयार कर रहे हैं l ऐसे-ऐसे पीएच.डी. किये हुए लोग मिलते हैं जो चार वाक्य किसी भी भाषा में ठीक से नहीं लिख पाते l न तो अंग्रेजी में और न ही अपनी मातृभाषा में |

और तो और हमारे बड़े-बड़े विद्वान् वरिष्ठ प्राध्यापकगण जब बोलेंगे तो बोलेंगे अंग्रेजी में ही क्योंकि विद्वत्ता का प्रतीक भी यही भाषा मात्र बन चुकी है और आप देखेंगे शुरू करते ही लड़खड़ाने लगते हैं l मैं जो बात कहना चाहती हूँ वह यह है कि किसी भी भाषा पर पकड़ नहीं है l अंग्रेज़ी आती नहीं और अपनी भाषाओं में ज्ञान अर्जित करना चाहते नहीं, उनको निम्न मानकर तिरस्कृत कर दिया है l ऐसा मान लिया गया है कि विज्ञान की, आभियांत्रिकी की या कोई भी अन्य शिक्षा बिना अंग्रेजी के संभव ही नहीं है जबकि विज्ञान में तो भारतवर्ष हज़ारों सालों तक शिखर पर था l इस तथ्यों से आप भी परिचित हैं और आपकी पार्टी के कई अन्य लोग भी परिचित होंगे l तो आप आज केवल दुःख व्यक्त करें यह तो पर्याप्त नहीं है, हम चाहेंगे कि इस सवाल पर आपकी पार्टी के अंदर गंभीरता से विचारमंथन हो l अंग्रेजी के गुलाम बन कर अपनी ज्ञान परम्पराएं हमने पीछे छोड़ दी हैं तो विश्वगुरु कैसे बनेंगे ? हम विश्वगुरु तो अपनी ज्ञान परम्पराओं के बलबूते पर ही थे l  जब अंग्रेजी की दासता के कारण हम इन ज्ञान परम्पराओं को ही छोड़ते जा रहे हैं तो विश्वगुरु कैसे बनेंगे भला ? हिन्दू मूल्यों एवं संस्कृति का  हितैषी माना जाने वाला राजनीतिक दल आज इस पर विचार क्यों नहीं कर रहा है ? और तो और नीति परिवर्तन के नाम पर एक तरफ़ तो उर्दू को यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) के पाठ्यक्रम में डाल दिया गया और दूसरी ओर सुनने में आया है कि संस्कृत में शिक्षित अभ्यार्थी यह जो अग्निपथ / अग्निवीर योजना है उसके लिए योग्य नहीं हैं l ऐसा क्यों ? कृपया समझाएँ l कैसे हमारी ज्ञान परम्पराएँ हमारी भाषाओं के बिना पुनर्जीवित हो सकेंगी ?

सुधांशु त्रिवेदी:  आपने जो प्रश्न किया उसके उत्तर में मैं बताना चाहूंगा कि अभी प्रधानमंत्री जी के दिशा-निर्देश में जो नई शिक्षा नीति आयी है जिसे हमारे शिक्षा मंत्री जी ने लागू किया है उसमें प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि अब बच्चों की बुनियादी शिक्षा का माध्यम उनकी मातृभाषा ही होगी  ताकि उनकी मौलिक सोंच राष्ट्रीयता के साथ विकसित हो l दूसरा, आपने संस्कृत के लिए कहा तो हम देख सकते हैं कि संसद में कानून बनाकर एकीकृत संस्कृत विश्वविद्यालय बनाने की बात हुयी है l जो अलग-अलग संस्कृत संस्थान अथवा विश्वविद्यालय हैं उन सभी को एकीकृत कर एक राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय बनाने का निर्णय लिया गया जिससे संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार कार्य को गति मिलेगी l तीसरा, मैं उदाहरण देना चाहूँगा कि दो-तीन राज्य ऐसे हैं जिन्होंने संस्कृत को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया है l एक तो उत्तराखंड है जहाँ हमारी सरकार रहते ही संस्कृत आधिकारिक भाषा बनी और दूसरा अब उत्तर-प्रदेश है l वाराणसी देश का ऐसा पहला हवाई अड्डा बना है जहाँ पर हिंदी,अंग्रेजी के साथ-साथ अब संस्कृत में भी उड़ानों की घोषणा होगी l हमें याद है कि पहले आकाशवाणी और दूरदर्शन पर संस्कृत में समाचार आते थे जिन्हें पिछली सरकार के कार्यकाल में हटा दिया गया था l हमने आकर उसे दोबारा शुरू किया l यहाँ एक बात कहना चाहूँगा संस्कृत भाषा के विषय में, यदि हमें इसे पुनः स्थापित करना है तो हमें अपने अंदर भी परिवर्तन लाना पड़ेगा l  भाषा के आधार पर अगर जनसंख्या का आँकड़ा देखें तो पता चलता है कि 5-6 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा उर्दू है l उनमें भी शायद 1 प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो हिंदी न समझते हों अथवा सिर्फ उर्दू ही समझते हों लेकिन कितने लोगों ने संस्कृत को अपनी मातृभाषा तो छोड़ो अपनी दूसरी भाषा भी लिखा है ? मैं  इसमें एक और बात कहना चाहता हूँ l बिना किसी सांप्रदायिक नज़रिए के यह तथ्य साझा करना चाहता हूँ कि कितनी बार आपने-हमनें महबूबा मुफ़्ती को यह  कहते हुए सुना है कि मैं कश्मीरी में ही बोलूंगी ? या बदरुद्दीन अजमल यह  कहें  कि मैं असमिया में बोलूंगा, असद्दुद्दीन ओवैसी इस बात के लिए लड़ाई लड़ें कि मैं तेलुगु में बोलूंगा या वारिस पठान यह लड़ाई लड़ें कि मैं मराठी में ही बोलूंगा ? हमारे यहाँ तो बस यह चलता है  कि  विविधता को विभेद में कैसे बदला जाए ? मात्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए l जबकि दूसरी ओर देखिए कि किस ढंग का एकीकरण है, जैसे ही आपका परिवर्तन होता है यहाँ तक कि आदिवासी बन्धु भी ईसाई होकर अंग्रेजी बोलने लगते हैं l अब उनके लिए अपनी आदिवासी संस्कृति, अपनी भाषा सब समाप्त l

मधु किश्वर: आख़िर इन गिरिजाघरों को और मिशनरियों को क्यों खुली छुट दे रखी है ? जबकि पता होगा ये हमारे लोगों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से बिल्कुल अलग करने का काम करते हैं l यह भी पता ही होगा कि ये लोगों को देश विरोधी सोंच की तरफ़ लेकर जाते हैं l  हमने देखा कि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) में कितनी जद्दोजहद के बाद एक छोटा सा संस्कृत विभाग बन सका l वहाँ अरबी, फ़ारसी, स्पेनिश, जर्मन और दुनिया की हर एक अन्य भाषा सीखी जा सकती थी सिवाय संस्कृत के l  संस्कृत को लेकर कितना विवाद हुआ और उसको हिंदुत्व की भाषा और न जाने क्या-क्या  अपशब्द कहे गए l फ़िर जाकर जैसे-तैसे यह विभाग बना भी तो सबसे कम सुविधाओं एवं सबसे कम महत्व वाला विभाग l बहुतों को तो पता भी नहीं कि वहाँ संस्कृत विभाग भी है या वह विभाग कुछ कर भी रहा है ? हैरानी तो तब होती है जब आज किसी को संस्कृत पढ़नी हो तो वह सोंचता है कि शिकागो-ऑक्सफ़ोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में जाकर पढेंगे या जर्मनी चले जाएंगे l भारत में अभी तक एक भी विश्व स्तरीय संस्कृत विश्वविद्यालय नहीं जैसे किसी ज़माने में हमारे यहाँ नालंदा-तक्षशिला हुआ करते थे जहाँ दुनिया भर से लोग पढ़ने आते थे l आप ही बताइए कि आज हमारे यहाँ कौन सा ऐसा संस्कृत विभाग या विश्वविद्यालय है जहाँ दुनिया भर से लोग संस्कृत सीखने आते हों ? जो संस्कृत संस्थान हैं भी वे अधिकतर उपेक्षा के शिकार हैं l बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को जिस तरह से बर्बाद किया है, मदन मोहन मालवीय जी की आत्मा को बहुत ही कष्ट पहुँचता होगा l उसमें और जेएनयू में तो जैसे कोई अंतर ही नहीं रह गया है l मैं यह जानना चाहूंगी कि यह कौन तय करता है कि यूपीएससी में उर्दू तो रखी जाएगी लेकिन संस्कृत नहीं ? उसका कारण ? जबकि एक तो इस देश को तोड़ने वाली भाषा बनी और दूसरी देश को एक सूत्र में पिरोने वाली पुरातन भाषा लेकिन इसे पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया l इस भाषा में शिक्षित अभ्यार्थियों और अध्येताओं को किसी रूप में प्रोत्साहन मिले तब तो लोग इसे पढ़ने-लिखने की और आकर्षित होंगे और इस भाषा का अस्तित्व बना रह सकेगा l और कुछ न सही तो कम से कम यूपीएससी (UPSC) में ही ऐसा प्रावधान कर दें कि संस्कृत माध्यम के अभ्यार्थियों को कुछ अतिरिक्त अंक मिलेंगे तो क्यों नहीं पढ़ेंगे लोग इसे? किसी तरह का कोई प्रोत्साहन नहीं, ऊपर से नौकरियां इतनी कम संस्कृत पढ़कर l भला क्यों पढ़ेगा कोई जब पढ़ने के बाद आजीविका की संभावनाएँ भी न के बराबर हैं ? यह स्थिति देखकर बहुत ही कष्ट होता है और इसीलिए मैंने अपने स्तर से इस दिशा में एक कोशिश भी की है l  मेरे माँ-पिता से जो कुछ भी संपत्ति मुझे विरासत में मिली उसका सदुपयोग करते हुए उनकी याद में एक ट्रस्ट बनाया है जो संस्कृत शिक्षा प्राप्ति के इच्छुक गरीब बच्चों को छात्रवृत्ति के रूप में सहयोग करेगा l

 मुझे सदैव यह खेद रहता है कि मैंने स्वयं अपनी सारी शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से पूरी की l  कारण ? उस समय दिल्ली में शिक्षा ही इसी तरह की थी l मैं खुद संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा का ज्ञान अर्जित नहीं कर सकी l  मेरा कहना यह है कि मान लो हम अपनी ट्रस्ट द्वारा सौ, दो सौ या पाँच सौ बच्चों को छात्रवृत्ति दे भी देंगे, वे पढ़ भी लेंगे लेकिन नौकरी कहाँ मिलेगी ? स्थिति यह है कि आज अच्छी संस्कृत जानने वाले पुजारी भी नहीं मिलते l ढंग से श्लोक भी नहीं बोलते हैं लेकिन क्या किया जाए बाकियों को तो इतना भी नहीं आता है ? आखिर यह किसका दोष है ? समाज का दोष तो नहीं हो सकता न ? यह तो शासन-व्यवस्थाओं की नीतियाँ तय करती हैं न कि हमें किस चीज को महत्व देना है और किसे आगे लेकर जाना है ?  

सुधांशु त्रिवेदी: आपने बात तो सही कही कि इसमें सरकार की भूमिका होती है l ईमानदारी की बात यह है कि पिछले 200 वर्षों में संस्कृत भाषा को नष्ट करने के बहुत गहरे प्रयास किये गए हैं l यह रोग इतना गहरा बन गया है कि इससे बाहर निकलने में कम से कम एक पीढ़ी तो लग ही जाएगी l  संस्कृत को जिस तरह से पूजा-पाठ की भाषा, कर्म-काण्ड की भाषा या वर्ग विशेष यानी ब्राह्मणों की भाषा के रूप में प्रचारित कर इसकी यही छवि लोगों के मस्तिष्क में बैठा दी गयी है, उस मानसिकता से निकलने में समय लगेगा l    

मधु किश्वर: जो संस्कृत को अत्याचारी साहित्य (Atrocity literature) की भाषा बताते हैं, ऐसा दुष्प्रचार करने वाले अमरीकी प्रोफेसरों के खिलाफ़ सरकार ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की ?

सुधांशु त्रिवेदी: आपकी बात से सहमत हूँ लेकिन पहले यहाँ तो स्थिति ठीक कर लें l हमारे यहाँ दस में कितने लोगों को यह बात मालूम है कि संस्कृत को भारत की राजभाषा बनाने का विषय संविधान सभा में आया था l और कौन व्यक्ति इसका पक्षधर था ? डॉ अम्बेदकर ! अभी न्यायधीश शरद अरविंद बोबडे ने नागपुर में पिछले महीने ही इस बात का उल्लेख किया कि डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि भारत की राष्ट्रभाषा संस्कृत बने मगर विरोध करने वाले कौन लोग थे ? पंडित नेहरु जैसे लोग l तो इसमें भी जो जाति ढूंढने का प्रयास करते हैं, सत्य इसके बिल्कुल विपरीत है l

मधु किश्वर: आपने जो अपनी पार्टी द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के बारे में बताया उनसे मैं उनसे थोड़ा असहमत हूँ l मैं कुछ कहना चाहती हूँ और उस पर आपके विचार एक चिंतक के रूप में जानना चाहूंगी न कि एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता के तौर पर l हमने देखा कि राजीव मल्होत्रा जी ने कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी संस्कृत भाषा के पक्ष में l उनकी पुस्तक भी है “The Battle for Sanskrit” और धर्मपाल जी ने भी अपनी किताब “The Beautiful Tree” l दोनों पुस्तकों में उन्हीं विषयों और आंकड़ों पर चर्चा की गयी है जिनका आप उल्लेख कर रहे थे l मेरा निवेदन आपसे यह है कि जिन अमरीकी प्रोफेसरों ने संस्कृत भाषा के विषय में इतनी अपमानजनक बातें लिखी हैं, क्यों नहीं हमारी सरकार उनके खिलाफ़ मानहानि वाद दायर करती ? हमारे पास तो भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् (ICCR) जैसी संस्था भी हैं जो विदेशों में हमारी संस्कृति के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं l कृपया आप बताएँ, क्यों हमारे देश की भाषा, संस्कृति और सभ्यता का इन अमरीकी विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों द्वारा बार-बार अपमान होने पर भी हम सुस्ती साधे रहते हैं ?

सुधांशु त्रिवेदी: मैं कहना चाहूंगा कि यह लड़ाई वास्तव में उस मानसिकता से है न कि व्यक्ति विशेष से l इन तीन-चार व्यक्तियों से हम क़ानूनी लड़ाई लड़ सकते हैं लेकिन फ़िर दस-पांच और खड़े हो जाएंगे l हमें इस विरोधी-मानसिकता को बदलना है, इसके लिए आवश्यक है कि हम पहले स्वयं में तो दक्ष हों l उदाहरण देना चाहता हूँ, 1994 की बात है कि थर्ड स्टेज क्रायोजेनिक इंजन (third stage Cryogenic engine) भारत को ना मिले इसके लिए अमेरिकी सीनेट में प्रस्ताव आया था और उसके दबाव में रूस ने हमको देने से मना कर दिया था l हमारी शक्ति कम थी, जिस दिन हमने ताकत दिखाई अथवा दक्षता अर्जित कर ली फिर आपने देखा कि किस तरह से वही अमरीका हमारे साथ आकर खड़ा हो गया चाहें हमें परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) में  छूट देने की बात हो या फ़िर मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (MTCR) में सदस्य बनाने की l

मधु किश्वर:  हमनें देखा नम्बी नारायणन जी के साथ क्या किया ?  अब जाकर उन्हें न्याय मिल सका l

सुधांशु त्रिवेदी: मैं उसी मुद्दे पर ही आ रहा हूँ, नम्बी नारायणन जी की भी लड़ाई इसी प्रकार की मानसिकता से ही थी l आज हमें जरुरत है कि उस मानसिकता को जवाब देने के लिए पहले अपने अंदर वह विश्वास हासिल करें l देखिये यहाँ मुकद्दमा जीतना महत्वपूर्ण नहीं है l रामजन्मभूमि का वाद जीतना महत्वपूर्ण था लेकिन उससे ज्यादा आवश्यक बात थी समाज में वह चेतना जगाना, उस भावना की स्वीकार्यता होना l जैसे मैं एक बात आपको बताना चाहूँगा, विवादित ढाँचा गिरने के बाद 1993 का जो चुनाव हुआ तब उत्तरप्रदेश में हमारी सरकार नहीं बनी l आपको याद होगा सपा-बसपा के गठबंधन की सरकार बनी थी l तब वहाँ एक एक नारा चला था ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम’ l उस समय एक हिंदूवादी नेत्री ने कहा था कि भई यह नारा इसलिए चल रहा है क्योंकि समाज की एकता और चेतना में थोड़ी कमी रह गई l जिस दिन हम वास्तविक एकता दिखाएंगे उस दिन यह नारा बदलकर हो जाएगा ‘क्या मुलायम, क्या कांशीराम; सारे बोलेंगे जय श्रीराम’ l आज हमने देखा ज्यों-ज्यों वह चेतना जागृत होकर जनमानस पर अंकित हुई, चीज़ें बदलनी लगीं l

मैं आपको भविष्य की बात बताना चाहता हूँ कि हमें लड़ाई किस ढंग से लड़नी है ? हमारा यह संघर्ष सिर्फ़ एक विषय विशेष या व्यक्ति विशेष के खिलाफ़ वाद-विवाद तक सिमित नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व को अपनी ज्ञान परम्पराओं की तथ्यात्मकता से परिचित कराकर अपनी विशिष्टता का प्रभाव छोड़ना है l वह होगा कैसे ? आज हम ऑनलाइन विडियो लिंक (Online video link) के माध्यम से बात कर रहे हैं, पर जब आज से लगभग तीस साल पहले सूचना प्रौद्योगिकी ढाँचे का इस तरह विकास और विस्तार नहीं हुआ था तब ऐसा लगता था कि यूरोप और अमरीका तो हमसे इतने आगे हैं कि सौ सालों में भी उनकी बरारी नहीं कर सकते l पर जैसे ही प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में यह मिसाल बदलाव हुआ, सॉफ्टवेयर और सूचना तकनीक का दौर आया l हम देखते हैं दुनिया आज काफ़ी नज़दीक हो गयी है l आज यह जो सारी तकनीक डिजिटल मंचों पर है और यह द्विआधारी भाषा (Binary language) पर आधारित है l जिस कारण से वह भाषाएँ जिनमें मात्राएँ इत्यादि नहीं हैं  जैसे कि अंग्रेज़ी इसके साथ सहजता से उपयोग होती हैं लेकिन जिस तरह से तकनीक नित्य विकास कर रही है, क्या यह डिजिटल प्रौद्योगिकी हमेशा रहने वाली है ?  उत्तर है नहीं ! तो अगली तकनीक क्या होगी ?  

अगली उभरती तकनीक है वॉइस कमांड (Voice command) l आज हम देखते हैं कि स्मार्ट फ़ोन पर बोलते हैं कि स्वतः टंकण (Typing) हो जाता है | ज्यों-ज्यों आने वाले दस-पंद्रह सालों में स्वर-आज्ञा (Voice command) आधारित या स्वर-विज्ञान (Phonetics) अथवा ध्वनिक-कंपन (Acoustic vibration) सम्बंधित तकनीक का विकास होगा त्यों-त्यों चीज़ें बदलेंगी l बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे, पहला तो वह भाषाएँ जिनकी ध्वनियाँ ज्यादा प्रभावशाली और वैज्ञानिक हैं उनका प्रभाव अपने आप दिखने लगेगा और दूसरा जो संस्कृत भाषा में मन्त्रों की शक्ति की बात कही गयी है यानी ध्वनि एवं कांपनिक प्रभाव (Sound and vibrational effect) l जिस पर अभी तक तो कोई शोध नहीं हो रहा था l जैसे ही इस पर शोध कार्य शुरू होगा और यह सारे तथ्य आने शुरू होंगे, हम आने वाले पंद्रह-बीस वर्षों में अथवा अपने जीवनकाल में ही इस तकनीक का बोलबाला देखेंगे l तो यह जो दीवानगी नौकरी हेतु अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए देखते हैं यही बिल्कुल संस्कृत भाषा के लिए भी दिखेगी l कारण ?  इस भाषा का ध्वनि-प्रभाव बहुत ही उत्तम है जिसे हम मन्त्रों के रूप में अनुभव करते हैं और यह शरीर पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है l तो जो हमनें सूचना क्रांति के क्षेत्र में कर दिखाया, ठीक वैसी ही भाषाई एवं तकनीकी तैयारी हमारी इस दिशा में भी होनी चाहिए l जब तक हमने खुली अर्थव्यवस्था को अंगीकार नहीं किया था तब अर्थात 1991 तक हमारी अर्थव्यवस्था इतनी शक्तिशाली नहीं थी कि हम अमरीका द्वारा दी गयी चुनौती के सामने डिगे नहीं l आज हम इस स्थिति में आ पहुँचे हैं कि उसे आँख दिखा सकते हैं, आवश्यकता पड़ने पर हम अपनी शर्तों पर बात करते हैं l तो हम हनुमान जी की तरह अपनी सोयी हुई शक्ति को जागृत करें अर्थात अपनी भाषा की  विशिष्ठता को पहचान उसमें पारंगत बनें फिर तो अच्छे-अच्छे झुकने लगेंगे l

मधु किश्वर: सुधांशु जी आपकी इस बात से तो मैं तनिक भी सहमत नहीं कि भाजपा जनजागृति निर्माण कर राम मंदिर के लिए एक जनाधार हेतु कटिबद्ध थी क्योंकि मोदी जी ने भी यह स्पष्ट कर दिया था की यह निर्णय न्यायालय द्वारा ही होगा l अगर यह जनजागृति के आधार पर ही होना होता तो वह जो पाँच एकड़ ज़मीन दूसरे पक्ष को दी है न दी गयी होती l उसी विचारधारा के लोगों ने पहले मंदिर तोड़ा जिसे वापस लेने के लिए हिन्दू पक्ष को सैकड़ों साल लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी l उसके बाद भी हमें वह भूमि ही मिली क्योंकि मंदिर तो मुग़ल आक्रान्ताओं ने तोड़ ही डाला था अब उन आक्रामक्ताओं की वैचारिक पीढ़ी को उपहार स्वरुप ज़मीन दे दी गयी जहाँ मस्जिद सहित एक बड़ा इंडो-इस्लामिक कल्चर सेंटर (Indo-Islamic Culture Centre) बनाया जा रहा है l यह ज़मीन देने का क्या औचित्य था समझ नहीं आता ? इस्लामियों द्वारा राम मंदिर को ध्वस्त किया गया और भूमि पर भी कब्ज़ा जमा लिया गया था l इतनी लम्बी लड़ाई लड़कर उच्चतम न्यायालय के निर्णय से वह वापस मिल सकी जिस पर अब जाकर दोबारा मंदिर निर्माण का कार्य शुरू हुआ है l झेला तो हिन्दू पक्ष ने फ़िर उन्हें यह उपहार क्यों ? ऐसा कभी होता है कि किसी डकैत से लूटी हुई वस्तु बरामद करके पुलिस उसे इनाम के साथ पुरुस्कृत करे ? अगर आज मेरी बेटी या मेरी बहन को घसीट के ले जाया जाता है चौराहे पर l उसे अपमानित किया जाता है, उसके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है तो क्या मैं कुछ किये बिना बस  यह इसलिए होने दूंगी या यही सोंचकर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहूंगी कि हमारा समाज जब तक बहन-बेटियों की इज्जत करना नहीं सीख लेता, यह सब ऐसे ही होता रहेगा या जब वे महिलाओं का सम्मान करना सीख जाएंगे तो यह सामाजिक विकृति स्वतः समाप्त हो जाएगी, बताइए ? प्रतिकार तो करना सीखना ही होगा न ? क्योंकि जब तक प्रतिकार नहीं करेंगे, इतने गहरे अपमानों का चाहें वह भाषा का हो, संस्कृति अथवा सभ्यता का हो या फ़िर आस्था का l यह सब बंद होने वाला नहीं है l और इसकी कीमत हम ऐसे ही चुकाते रहेंगे जैसे की रामजन्मभूमि वापस लेने के लिए चुकाई l अंतर आप स्वयं ही देख लें, उसी चर्चा में जिसमें एक भाजपा प्रवक्ता की कही बात को समुदाय विशेष द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया गया और विरोध के नाम पर क्या कुछ नहीं हुआ उसी चर्चा में जो दूसरे वक्ता रहमानी थे उन्होंने शिवलिंग अर्थात भगवान शंकर के लिए कितने अपमानजनक शब्द बोले थे लेकिन फ़िर भी वह व्यक्ति चौड़ा होकर आज भी टेलीविज़न चर्चाओं में आता है l ऐसा क्यों ? क्योंकि हमें प्रतिकार ही करना नहीं आता l

सुधांशु त्रिवेदी: देखिए आपने जो बात कही कि किसी बहन या बेटी के साथ अत्याचार होता है तो हम क्या करें ? निश्चित रूप से प्रतिकार करेंगे परन्तु यहाँ समाज को ज़िम्मेदार बनाने का महत्व क्या है ? इसे ऐसे देखें कि हो सकता है अपने परिवार के किसी व्यक्ति को तात्कालिक प्रतिकार करके बचा लें लेकिन यदि तमाम परिवारों की बच्चियों के साथ इस तरह के बर्ताव की परिस्थितियों की सम्भावना दिखने लगे तो उसका प्रतिकार या समाधान समग्र सामाजिक चेतना जगाकर ही संभव है l यह होगा स्थाई समाधान l एक तो यह होता है कि बुखार आ गया तो तुरंत कोई दवाई चाहिए परन्तु अगर जड़ से किसी रोग को समाप्त करना है तो वह इलाज बीमारी की गहराई में जाकर धीरे-धीरे करना पड़ता है l तो रुग्ण मानसिकता का इलाज शनैः शनैः सत्य और नैतिक विचारों के साथ मानसिक शुद्धि से ही सम्भव प्रतीत होता है l

 एक उदाहरण देकर थोड़ा और स्पष्ट करना चाहूंगा, हम कहते हैं कि संस्कृत में दुनिया का सबसे ज्यादा ज्ञान है तो उस पर बहुत से लोगों की असहमति होती है l जब हम लोग प्यार-मोहब्बत की बातें करते हैं तो ऐसा लगता है की उर्दू की शेरो-शायरी में ही सब कुछ है l लेकिन हमें पता होना चाहिए  कि जिस व्यक्ति ने कहा “Sanskrit is the mother of all languages”, वह कोई भारतीय नहीं था l उनका नाम है विलियम जोन्स जो कि ब्रिटिश थे l उन्होंने संस्कृत सीखने के बाद जिन दो ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया वे थे ‘हितोपदेश’ एवं ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ l क्यों? क्योंकि उसमें दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम-कथा पढ़कर वो इतने अभिभूत हो गए कि उन्होंने कहा कि इस तरह की कल्पनाएँ, ऐसे उदाहरण और ऐसा विश्वास न समझे जा सकने वाला एवं विस्मयकारी है l कालिदास और उनके जैसे लोगों को अगर हम पढ़ लें तो अन्य लेखन दोयम दर्जे का लगने लगेगा l यह उदाहरण मैंने इसलिए दिया क्योंकि ज्ञान-विज्ञान पर तो लोग बहुत कहते हैं लेकिन प्रेम, माधुर्य और श्रृंगार पर जो संस्कृत का साहित्य है वो इतना श्रेष्ठ है कि जिसकी शब्दों के माध्यम से प्रशंसा संभव नहीं l हम क्या मानते हैं इसे ? मात्र पूजा-पाठ वाली पंडितों की भाषा l तो हमें अपने अंदर यह चेतना लानी होगी और संस्कृत भाषा को पढ़ना होगा l अगर नहीं भी पढ़ते हैं तो आप देखते रहिए कि भविष्य में ऐसी परिस्तिथियाँ आएंगी ही अवश्यम्भावी कि हमें यह सीखनी ही पड़ेगी l काल चक्र ऐसे घूमेगा कि ये चीज़ें स्वयं उभरकर आएंगी l

इसे ऐसे समझें कि राम-मंदिर के मुद्दे पर हम लोगों पर व्यंग्य किया जाता था कि ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे, तारीख नहीं बताएंगे’ l न्यायिक प्रकरण होने के कारण मंदिर निर्माण की कोई तिथि निश्चित नहीं हो सकती थी l यह मुद्दा तो भारत की उत्क्रांतिक प्रक्रिया से ही तय होना था l ज्यों-ज्यों भारत की चेतना आगे बढ़ी, त्यों-त्यों राम मंदिर निर्माण की संभावनाएँ भी उसी दिशा में आगे बढीं l राम मंदिर निर्माण की ऐतिहासिक यात्रा को अगर हम प्रथम स्वातंत्रय समर से शुरू करके उच्चतम न्यायालय के निर्णय तक की तिथियों को क्रमबद्ध करके देखें तो समझ सकते हैं कि सामाजिक चेतना के जागृत होने, एकीकृत होने और उसके वास्तविकता में परिणत होने की प्रक्रिया कैसी होती है l आज़ादी की पहली लड़ाई 1857 में हुई और रामजन्मभूमि का पहला वाद 1858 में हुआ अर्थात उसी कालखंड में l स्वतंत्रता संघर्ष का सबसे बड़ा पड़ाव है, 1937 में प्रादेशिक सभाओं (Provincial assemblies) के चुनाव और राज्यों में कॉंग्रेस की चुनी हुयी सरकारों का आना l वर्ष 1936 में अयोध्या में भारी संघर्ष हुआ और वहाँ नमाज़ पढना बंद हुआ l यह तो हम जानते ही हैं 1947 में हमें आज़ादी के साथ हृदय विदारक देश-विभाजन मिला और 26 नवम्बर 1949 को संविधान बनकर तैयार हुआ l इसके बाद दिसम्बर 1949 में श्रीरामलला विराजमान हुए l| 1990-1992 वह वर्ष है जब भारत में नई अर्थ-व्यवस्था बनती है, मंडल कमीशन आता है, नया समाज बनता है, सरकार बदलनी शुरू होती है और यही राम-जन्मभूमि के उभार का समय था l 30 सितम्बर, 2010 को  इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आता है और अक्टूबर में बराक ओबामा भारत आते हैं और भारत की संसद में कहते हैं “India is not emerging, India has emerged” l  और जब 2019 में जन्मभूमि का निर्णय आता है तो उस समय केंद्र में मोदी जी के नेतृत्व में और उत्तर-प्रदेश में योगी जी के नेतृत्व में वह सरकार थी  जिसमें हिन्दू आस्था परिलक्षित होती दिख रही थी l  तो यह एक क्रमिक प्रक्रिया थी l भगवान् का प्रकटीकरण एक इमारत बनाने के लिए ही नहीं हुआ था वरन् सामाजिक चेतना खड़ी करने के लिये था l इसलिए ज्यों-ज्यों यह चेतना खड़ी होती जा रही थी त्यों-त्यों राम मंदिर भी खड़ा होता जा रहा था और विश्वास रखिए जिस दिन राम मंदिर की पताका लहराएगी, उस दिन भारत के स्वाभिमान की पताका भी विश्व के मंच पर उसी प्रकार से लहराती हुई आगे बढती नज़र आएगी l

मधु किश्वर: मैं आपकी बहुत सी बातों के साथ शत प्रतिशत सहमत होती हूँ परन्तु यहाँ मेरी फ़िर आपसे थोड़ी असहमति है l आप भी शिक्षक रहे हैं और मैं भी और यह हम जानते हैं कि देश की बदहाली का मूल कारण यह अंग्रेज़ी शिक्षा बनी l अंग्रेज़ियत के प्रभुत्व के कारण ही हमारी शिक्षा सुधर नहीं पा रही है l आज सुबह का ही  मैं अपना अनुभव बताऊँ आपको l एक लड़की मेरे पास नौकरी के लिये आयी l मैंने उससे पूछा कि कहाँ तक शिक्षा प्राप्त की है ? उसने कहा नौंवी कक्षा तक l अब नौंवी तक पढ़ी है तो मैंने कहा हिंदी तो पढ़ ही लेती होगी l मैंने पूँछा कि अख़बार पढ़ लेती हो ? उसने कहा नहीं l दवाई की शीशी पर जो हिंदी में नाम लिखा है, पढ़ सकती हो ? वह भी नहीं l फिर मैंने मोटा-मोटा यह लिखकर कि ‘मुझे हिंदी पढ़ना नहीं आता’, पूँछा कि क्या तुम यह वाक्य पढ़कर बता सकती हो? तो फ़िर उसने साफ़ बोल दिया कि मैं पढ़ ही नहीं सकती हूँ l तो मैंने पूँछा कि तुम नौंवी कक्षा तक पहुँची कैसे ? उसने कहा कि  वहाँ परीक्षाएँ तो बंद कर दी गयी थी बस उत्तीर्ण करते गए l

बात यह है कि आज शिक्षक कर क्या रहे हैं ? बस वेतन लेते जातेहे हैं l सरकारी विद्यालयों की स्थिति यह है कि वहाँ पढ़ी वह लड़की मेरे हाथ के लिखे मोटे-मोटे पाँच शब्द भी नहीं पढ़ पायी l मतलब यहाँ तो बच्चे शिक्षा से बिल्कुल ही कट चुके हैं l एक तरफ़ बच्चों की अपेक्षाएँ इतनी बढ़ रही हैं और दूसरी तरफ़ हमारे सरकारी विद्यालय उन्हें एक चपरासी तक बनने की शिक्षा भी ठीक से नहीं दे पा रहे हैं l अंग्रेजों के बारे में कहा जाता था कि वे अच्छे लिपिक अथवा मुंशी (Clerk) तैयार करते थे, आज आज़ादी के इतने वर्षों बाद तो हम वह भी नहीं कर पा रहे हैं l

देखिए मेरा कहना यह है कि मंदिर आप बनाइये लेकिन हमारी सरकारी शिक्षा पद्धति एवं प्रणाली को तो बदहाली से उभारिए, यहाँ पढ़ रहे बच्चे अपनी मात्रभाषा भी सही से लिख-पढ़ नहीं पा रहे हैं l और कृपया यह भी बताएँ कि क्या राम-मंदिर के साथ वहाँ ऐसी कोई विश्वस्तरीय संस्था बनाने की योजना है जहाँ देश के साथ-साथ दुनिया भर से लोग आकर हमारी ज्ञान परम्पराओं, हमारी पुरातन एवं शास्त्रीय भाषाओं जैसे कि संस्कृत, तमिल या अन्य भाषाएँ भी एवं हमारी कला-संस्कृति को जानने एवं समझने के लिए आकर्षित हों ?  

और जैसा मैंने कहा कि संस्कृत के लिए जिन्होंने इतने अपमानजनक शब्द कहें उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती दिखती l इतना बड़ा अपमान यह हिन्दू संस्कृति-हितैषी मानी जाने वाली सरकार सह लेती है l क्या इसका एक कारण हमारे शिक्षा तंत्र पर उनका प्रभुत्व तो नहीं ? इजराइल इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे अपनी भाषा, संस्कृति और सभ्यता की रक्षा की जाती है ? भयंकर अत्याचारों से जूझते हुए और लगभग खत्म किये जाने के बावजूद भी इधर-उधर छितर-वितर हो चुके एक जाति के बचे-कुचे लोगों ने कैसे अपने पुरातन गौरव को पुनः स्थापित किया ? यह वास्तव में सीखने योग्य है l जैसे हमारी अब हिन्दुस्तानी भाषा हो गयी है जो हिंदी और उर्दू का मिश्रण है ऐसे ही कभी उनकी यूरोप में रहते समय यिद्दी अथवा यिद्दिश भाषा हुआ करती थी परन्तु जैसे-जैसे इकट्ठे होकर उन्होंने एक देश के रूप में स्थापित होना शुरू किया, तब अपनी ही सांस्कृतिक विरासत को एक देश और समाज के रूप में आगे के जीवन का आधार बनाया न कि अपने दिमागों में यूरोपियता की बिमारी लेकर आये जैसे कि हम अंग्रेज़ियत के मारे हैं l  हिब्रू जो कि यहूदियों की पुरातन भाषा है उसे पुनर्जीवित किया और इसी भाषा को अपनी शिक्षा, शासन-प्रशासन, अपने ज्ञान-विज्ञान या प्रौद्योगिकी, सभी चीज़ों का माध्यम बनाया l यहूदी दुनिया के किसी भी कोने में हो, वह अपनी भाषा हिब्रू को ज़रूर सीखता है और उस पर गर्व करता है और हमारी स्थिति क्या है ? बताने की आवश्यकता नहीं l दिल्ली से भी छोटे देश ने आज क्या कुछ नहीं कर दिखाया अपने ‘स्व’ तत्व को जागृत रखते हुए l  

हम यह कैसे कह सकते हैं कि मंदिर बनने से हमारे अंदर अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति सुप्त या लगभग मृत हो चुका स्वाभिमान पुनः स्थापित हो जायेगा ? कस्बों-शहरों में रहने वाले बच्चे चूँकि मैकाले शिक्षा पद्धति वाले विद्यालयों-महाविद्यालयों में शिक्षा ले रहे हैं जिस पर उनके माता-पिता भी गौरव का अनुभव करते हैं तो वे तो अपने मूल्यों एवं परम्पराओं से बिल्कुल ही कटे हुए हैं l ग्रामीण आँचल या परिवेश से आने वाले बच्चों को आर्थिक तंगी के चलते औसतन शिक्षा भी नहीं मिल पाती और सरकारी विद्यालयों की बदहाली किसी से छिपी नहीं है तो स्थिति और अधिक चिंतनीय है जबकि मैकाले पद्धति से पढ़ने वाले बच्चों की तुलना में इनके साथ संभावनाएँ अधिक नज़र आती हैं अगर इनको बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने पर ध्यान दिया जाए l  

मैं फ़िर कहना चाहूंगी कि अगर हम वास्तव में अपनी ज्ञान परम्पराओं को पुनर्जीवित करना चाहते हैं  जो कि अपनी भाषाओं के माध्यम से ही संभव है तो सरकार कम से कम यह तो शुरुआत करे कि जो लोग संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं में या उस माध्यम में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं या करना चाहते हैं, उनकी आजीविका की कुछ ठोस संभावनाएँ तो सुनिश्चित करे, तब तो कोई अपनी भाषाओं के अध्ययन की ओर आकर्षित होगा अन्यथा क्यों कोई अपना अमूल्य समय नष्ट करे जबकि पता हो कि जो पढ़ रहे हैं उससे आजीविका मिलने वाली नहीं अथवा यह सब पढ़ने-लिखने के बावज़ूद भी रोज़गार के लिए अंग्रेज़ी सीखनी ही पड़ेगी ? कृपया अन्यथा न लें किन्तु सरकार द्वारा इस विषय पर मात्र शाब्दिक निष्ठा दिखाने के अलावा मुझे तो कुछ भी होता नहीं दिखता अर्थात कुछ ठोस निर्णय लेने की आवश्यकता है l आज स्थिति यह है हमारी जितनी भी भाषाएँ है चाहें संस्कृत हो, तमिल हो, हिंदी या मराठी अगर इनमें पारंगत होकर कोई सफ़ल लेखक के तौर पर स्थापित हो पाया तब तो ठीक है कुछ प्रसिद्धि और पुरूस्कार मिल जाएंगे अन्यथा तो एक लिपिक की नौकरी भी नहीं मिलती उसके लिए भी अच्छी अंग्रेजी की मांग की जाती है l न कोई विशेष छात्रवृत्ति इत्यादि सुविधाएँ हैं छात्रों को इन भाषाओं के अध्ययन की ओर आकर्षित करने के लिए  |   

हमारी भाषाओं की समृद्धि और उनके अपमान के प्रतिकार के लिए अल्पावधि प्रयास होते नहीं दिखते और दीर्घावधि योजनाएँ भी हैं नहीं, किस आधार अपने आप को हम पुनः विश्व-गुरु  के रूप में स्थापित करने की बात करते हैं? क्या कहा जाए इस पर ? क्या इस संस्कृति से कटे हुए, संस्कार-विहीन, अधिकतर समय अश्लील चलचित्रों को देखने में गंवाने वाले युवा के साथ हम इस सपने को पूरा करेंगे ? हमनें देखा है कि पहले किस तरह से चाहें किसान हो, बुनकर हो या कोई भी हो अपने बच्चों को नैतिक मूल्य अथवा संस्कार सिखाने पर उनका सबसे ज़्यादा जोर होता था लेकिन आज तो न घर पर ही यह सीख रहे हैं और विद्यालयों के हाल का तो कहें ही क्या ? मैं आपके माध्यम से सरकार से कहना चाहती हूँ कि आप इस दिशा में अपने अल्पावधि प्रयास एवं दीर्घावधि योजनाएँ दोनों रखिए ताकि कल को कोई हमें अपमानित करने की ऐसी कोशिश करे जैसा कि इन अमरीकी प्रोफ़ेसरों ने की तो उससे पहले दस बार सोंचे l और एक बात, सरकारी स्तर पर देश में एलोपैथी चिकित्सालय तो कई बनाये जा रहे हैं लेकिन कितने आयुर्वेदिक चिकित्सालय बनाये गए ? और देखिए आज हमारे पारंपरिक बुनकरों, मूर्तिकारों, लोहारों इत्यादि का क्या हाल है ? सब खत्म होने की कगार पर आ पहुँचे हैं l भाषाएँ गयीं तो संस्कृति भी गयी और जब संस्कृति ही गयी तो उस पर आधारित सभ्यता का अंत तो तय सा ही है l आपके क्या विचार हैं इस सम्बन्ध में ? 

सुधांशु त्रिवेदी: आपने यह जो आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति की स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त की इस सम्बन्ध में बताना चाहूंगा कि मौजूदा सरकार ने जामनगर में आयुर्वेद विश्वविद्यालय बनाया l इसके अलावा गंगा नदी के दोनों तरफ़ औषधि वाली जड़ी-बूटियों की खेती के लिए 800 करोड़ रुपयों का प्रावधान बजट में किया है l  

मधु किश्वर: लेकिन क्या होगा इसका ? या तो इसे विश्व स्वस्थ्य संगठन (WHO) को सौंप दिया जाएगा या फ़िर आकर दवाइयाँ बनाने वाली कंपनियाँ ले जाएंगी ?

सुधांशु त्रिवेदी: मैं वही बताना चाहता हूँ l देखिए हमने क्या किया कि वहाँ डब्ल्यू.एच.ओ. का केंद्र बनवाया जहाँ दुनियाभर की पारंपरिक औषधियों को रखा एवं संरक्षित किया जाएगा क्योंकि हमारे पास इस विषय में सबसे अधिक संरचित ज्ञान है l

मधु किश्वर: मेरी दृष्टि में तो डब्ल्यू.एच.ओ. एक शठ चरित्र का संगठन है l इसको भारत में अधिक पैठ न बनाने दें l   

सुधांशु त्रिवेदी: देखिए यह आपका मत है किन्तु अगर आज कोई अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्वास्थ्य सम्बंधित मुद्दे को उठाना चाहता है तो दो ही तरीके हैं l या तो वह खुद को इस क्षेत्र में इतना बड़ा और विकसित करे कि वैश्विक स्तर पर लोग उससे अपेक्षा रखना शुरू कर दें और उसकी बात को सुनना शुरू करें या फ़िर किसी अंतर्राष्ट्रीय  मंच पर जाकर खुद को इस तरह स्थापित कर दे कि दूसरों को स्वीकार करना ही पड़े l  

मधु किश्वर: हमारे यहाँ बाबा रामदेव ने किया न ऐसा ?  बिना किसी डब्ल्यू.एच.ओ. की मंजूरी के अपने आप को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया l

सुधांशु त्रिवेदी: बाबा रामदेव का आपने बहुत अच्छा उदाहरण दिया l यही मैं भी कहना चाहता हूँ कि हम इतने ताकतवर तो बनें पहले कि दुनिया को हमसे प्रभावित होकर हमारी बात को मानना ही पड़े | योग में हम ताक़तवर बने तब जाकर आज विश्व योग दिवस की बात आई | अपने अंदर वह विश्वास तो पैदा करें l मैंने यह नहीं कहा कि मंदिर बनने से समाज में जागरूकता आ जाएगी बल्कि मैंने उल्टा कहा कि समाज में जागरूकता आने के बाद मंदिर बनेगा तो उसकी सार्थकता होगी l कल्पना कीजिए अगर यही मंदिर उसी समय सन इक्यानवे में कानून लाकर बनाया जाता तो तरह-तरह से कितना बवाल मचाया जाता लेकिन आज जब यह हुआ तो वही पार्टियाँ जिनसे आने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने उस ढाँचे को बाबरी मस्जिद के रूप में पुनःस्थापित करने की बात कही थी, वही आज इस फ़ैसले का स्वागत करने लगीं l किसी ने भी नहीं बोला कि हम दोबारा बनाएंगे, सभी ने स्वागत किया l ऐसा क्यों ? क्योंकि समाज की चेतना में परिवर्तन आया जिसे इन्होंने भाँप लिया l इसीलिए मेरा मानना है कि दो-चार व्यक्तियों से लड़ने से अच्छा है कि हम नकारात्मक अथवा विभेदक विचारधाराओं पर विजय प्राप्त करने के लिए समाज में एक तार्किक एवं तथ्यात्मक चिंतन पैदा करें l

 श्रोताओं / दर्शकों के प्रश्न व वक्ताओं द्वारा उनके उत्तर 

1. पार्थ उपाध्याय: भाषा को ठीक ढंग से पढ़ाया जाये l संस्कृत व्याकरण का पठन-पाठन अनिवार्य किया जाये एवम पत्रकारिता एवं संचार माध्यमों में हिंदी के प्रभुत्व को रोका जाए l अन्य भाषाओं के विद्वानों को भी आमंत्रित किया जाए l संस्कृत हिंदी से उत्तम भाषा है l

सुधांशु त्रिवेदी: देखिए इन्होंने जो बात कही है न संस्कृत व्याकरण को अच्छे से पढ़ाने के सम्बन्ध में तो मैं कहना चाहता हूँ अंग्रेजी में मात्र पाँच स्वर (vowel) हैं l हिंदी या संस्कृत में इससे दोगुनी से भी ज़्यादा हैं? हम देखेंगे कि जब बोलते हैं ‘क’ तो आपकी जिह्वा कहाँ लगती है, ‘ख’ बोलते हैं तो और पीछे लगती है, जब ‘ग’ बोलते हैं तो और भीअधिक पीछे  यानी कि पूरी की पूरी स्वर्तंत्री (Vocal chord) के हिसाब से पूरा स्वर या ध्वनि-शास्त्र बना है | लेकिन हमारे यहाँ तो इसे पोंगापंथियों की भाषा कह दिया गया l

2. सिद्धार्थ शेखर: सुधांशु जी, आपके ज्ञान और आपका मैं बहुत सम्मान करता हूँ | विषय से हट रहा हूँ लेकिन कृपया यह बताएँ की पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (PFI) पर प्रतिबंध क्यों नहीं लग रहा है ?

सुधांशु त्रिवेदी: इसी के लिये विधिविरुद्ध क्रियाकलाप अधिनियम संसोधन के साथ लेकर आये हैं l हमें मूल समस्या को खत्म करना है l हमने देखा पी.एफ.आई. को कि कैसे तीन बार अपना नाम बदल-बदलकर आ चुकी है l  आप जैसे ही ऐसी किसी संस्था को प्रतिबंधित करते हैं तो वह तुरंत दूसरे नाम से काम करना शुरू कर देती है l इसीलिए अब इस तरह के व्यक्तियों को चिन्हित कर कार्रवाई की योजना पर कार्य किया जा रहा है जो गैर-कानूनी गतिविधियों में लिप्त रहते हैं ताकि अगर वह संस्था या संस्था का नाम बदलकर भी सक्रिय रहने की कोशिश करे तब भी बच न सकें l

3. अनाम श्रोता: कुछ अच्छी पुरानी देशभक्ति पर आधारित फिल्मों का संस्कृत भाषा में अनुवाद कराइए या कुछ कार्टून निकलवाइए l

मधु किश्वर: इस सम्बन्ध में मैं यह कहना चाहूंगी कि और सब चीज़ें तो ठीक हैं लेकिन इसकी शुरुआत शिक्षा से की जाए l सबसे ज्यादा समस्या शिक्षा में है, आज संस्कृत के अच्छे शिक्षक नहीं मिलते हैं l बल्कि इंटरनेट पर ज़्यादा अच्छी सामग्री मिल जाती है जो कुछ छोटी-छोटी समाज सेवी संस्थाओं द्वारा उपलब्ध करायी जाती है l  यही कहना चाहती हूँ कि कृपया संस्कृत को उसका सही स्थान दिलाने के लिए ठोस प्रयास किये जाएँ l

4. दिशा पारिख:  हिन्दू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से कब मुक्त किया जायेगा ?

इसी के साथ

मधु किश्वर:  मंदिरों को ज्ञान परम्पराओं का केंद्र बनाइए l अब राम मंदिर के साथ हमारी ज्ञान परम्पराओं कैसे जोड़ा जायेगा ? कृपया बताएँ l

सुधांशु त्रिवेदी: आपने देखा कि राम मंदिर निर्माण का जो न्यास (Trust) बना है, उसकी योजना मंदिर के साथ-साथ पूरी अयोध्या नगरी की सांस्कृतिक भव्यता की पुनः स्थापना एवं संस्कृत विश्वविद्यालय बनाने की है l सरकारी के अलावा निजी क्षेत्र भी वहाँ कार्य कर रहा है l महर्षि महेश योगी संस्थान वाले भी वहाँ एक विश्विद्यालय बना रहे हैं l  हवाई अड्डा भी बन रहा हैl  इसे कुछ इसी तरह से विकसित करने की योजना है जैसे कि ईसाईयों के लिए वेटिकन l ईश्वर की कृपा से आने वाले कुछ ही वर्षों में हम देखेंगे कि अयोध्या किस प्रकार से ज्ञान और संस्कृति के केंद्र के रूप में स्थापित होगा l सन 2024 में मंदिर का निर्माण शुरू हो जाएगा और यह पूरी प्रक्रिया 5-6 वर्ष में पूरी हो जाएगी l

मधु किश्वर:  आपकी बात ठीक है पर हमारे दर्शक का प्रश्न यह था कि मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्ति कब मिलेगी?

सुधांशु त्रिवेदी: राम-मंदिर न्यास पर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं है l सरकार केवल सहयोग करेगी बाकि कोई सरकारी प्रतिनिधि नहीं है उसमें l  

मधु किश्वर: न्यास के सदस्य हैं तो सरकार द्वारा नामित ही न ? राम मंदिर के अलावा जो हज़ारों मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है विशेषकर दक्षिण में या वैष्णो देवी तीर्थ में l वहाँ जो भक्तों के चढ़ावे से धन एकत्रित होता है वह कहाँ जाता है आप स्वयं जानते हैं ? उस विषय पर आपकी राय जानना चाहते थे l

सुधांशु त्रिवेदी: देखिए जो मंदिरों के अधिग्रहण की बात है उसमें अधिकांश बड़े-बड़े मंदिर उन राज्यों में हैं जहाँ गैर-भाजपा सरकार है | वहाँ मंदिरों का पूर्ण अधिग्रहण कर लिया गया है l मेरे विचार में इसके लिए एक व्यवस्थित न्यायिक प्रक्रिया बननी चाहिए अर्थात वह कानून भी हो सकता है क्योंकि राज्य सरकार के मामले में हम सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकते l मौजूदा स्थिति में अगर तमिलनाडु की सरकार ने मंदिरों का अधिग्रहण कर रखा है तो केंद्र सरकार राज्य सरकार से वह अधिकार नहीं छीन सकती है l या तो इस मुद्दे पर ऐसा जनजागरण हो कि सभी राज्य सरकारों पर दबाव बने l पर वह एक अलग विषय है l आज अगर इस मुद्दे पर केंद्र सरकारम किसी प्रकार की संवैधानिक व्यवस्था लाने की कोशिश करेगी तो फ़िर हल्ला मचना शुरू हो जायेगा कि राज्यों के मामलों में दखल दिया जा रहा है या अधिकारों का हनन किया जा रहा है आदि-आदि l

मधु किश्वर: जिन्हें शोर मचाना है मचाएँ लेकिन बहुत से लोग आपको दुआएँ भी तो देंगे यदि आप इस दिशा में कोई कदम उठाते हैं l

5. अमेय: कृपया सरकार पिछड़ी जाती, अनुसूचित जाति / जनजाति की तरह ही स्वर्ण/सामान्य वर्ग आयोग भी गठित करे l यह लोग लक्षित उत्पीड़न का शिकार होते हैं l डॉ. अम्बेडकर और महात्मा ज्योतिबा फुले इत्यादि के अत्याचार से सम्बंधित साहित्य को भी प्रतिबंधित किया जाए l   

सुधांशु त्रिवेदी: शिक्षा-पाठ्यक्रम में अगर कहीं भी विद्वेषपूर्ण बातें पाई जाती हैं  तो सरकार उन्हें पाठ्यक्रम से नियमानुसार निकलवाने का पूर्ण प्रयास करती है l जहाँ-जहाँ पर जब भी, जो भी बातें संज्ञान में आती हैं सरकार उस पर विधिपूर्वक कार्रवाई करने की हर संभव कोशिश करती है l अगर कहीं विभेद या विद्वेषपूर्ण साहित्य पढ़ाया जा रहा है तो आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय भी जाया जाएगा कि  यह तो साबित हो आख़िर इसका आधार / स्त्रोत क्या है ? जब यह सरकार सत्ता में आयी उसके बाद एनसीईआरटी (NCERT) को सूचना के अधिकार (RTI) के तहत बहुत से आवेदन प्राप्त हुए l ये कोई जवाब ही नहीं दे सके कि पूर्व में यह पाठ्यक्रम किस आधार पर बदले गए ? किस समिति ने बदले ? बैठकों का विवरण ही उपलब्ध नहीं है l ये इस बात का प्रमाण हैं कि  मनमाने ढंग से सब कुछ बदल दिया गया l और तो और यह भी जानकारी नहीं कि जो विद्वेषपूर्ण साहित्य पाठ्यक्रम में रखा गया था उसका स्त्रोत क्या था ?

मधु किश्वर: आपकी बात सही है लेकिन जब उच्चतम न्यायालय  ने मोदी सरकार को कहा था की एससी /एसटी कानून बहुत ही कठोर क़िस्म का है, इसमें सुधार किया जाए तब तो उल्टा सरकार ने उसे और कड़ा बना दिया ? इस विषय पर भी कभी आपसे चर्चा करना चाहेंगे l

6. चाहत सिंह चौहान: सुधांशु त्रिवेदी जी दबे शब्दों में कह गये कि हिन्दुओं सड़क पर उतरो l

सुधांशु त्रिवेदी:  मैंने यह कभी नहीं कहा सड़क पर उतरो, मैंने सिर्फ यह कहा कि अपना मत (Vote) देने के लिए पंक्ति में उतर जाओ इतना काफ़ी है l आज भी अगर देखें कि कहीं पर मत प्रतिशत अगर 70 है तो 30 प्रतिशत लोग कौन हैं जो मत का प्रयोग नहीं कर रहे हैं ? यह मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है l अगर कहीं पर 90 प्रतिशत मतदान हुआ है और कुल मत प्रतिशत 65 है तो इसका मतलब यह है कि कहीं पर 85 प्रतिशत मतदान हुआ है l मेरा कहना यह है कि कुछ नहीं अपने मताधिकार और संवैधानिक नागरिक अधिकारों का प्रयोग करें, मत से सरकार ही नहीं समाज भी बदल जाएगा l

मधु किश्वर: इस पश्चिमी लोकतंत्र प्रतिरूप (Model) ने तो तबाह कर दिया है हमारे समाज को मैं तो इसे पसंद नहीं करती l  

सुधांशु त्रिवेदी: किसने कहा कि यह पश्चिम से आया ? लोकतंत्र हमारे यहाँ हमेशा था, इसकी तो शुरुआत ही भारत से हुयी l

मधु किश्वर: लेकिन हमने अपनाया हुआ तो पश्चिमी मॉडल है ?

सुधांशु त्रिवेदी: ऐसा तो हमनें मान लिया है कि लोकतंत्र एक पश्चिमी संकल्पना है l हमारे यहाँ तो भगवन बसवन्ना का जो अनुभव मन्तपा था, वह देखिए लोकतंत्र का ही प्रतीक है l  हमारे यहाँ तो सभा, समिति, विदथ, गण वाला लोकतंत्र था l यहाँ तो वैदिककाल से ही लोकतंत्र की एक स्वस्थ परंपरा रही है |

मधु किश्वर: मैं आपसे सहमत हूँ कि यह लोकतंत्र की संकल्पना तो हमारी ही है लेकिन वह वास्तविक लोकतंत्र था न कि यह आज का असफ़ल पश्चिमी प्रतिमान l इस मुद्दे पर एक विस्तृत चर्चा के लिए आपको पुनः आमंत्रित करेंगे l

आज के इस अति महत्वपूर्ण विषय पर आपने अपने राजनीतिक अनुशासन का भली-भाँति पालन करते हुए जिस स्पष्टता और विद्वत्ता के साथ विचारों को हमारे समक्ष रखा वह वास्तव में सराहनीय है l आपने अपना बहुमूल्य समय दिया, इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद l

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